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पटना: बिहार चुनाव में अब महज चंद महीनों का वक्त शेष है। राजनैतिक पार्टियां विरोधियों को मात देने के लिए रणनीति बनाने में जुटी हुई हैं। सियासतदान और सियासी पंडित वोटर्स का गुणा भाग करने में लग चुके हैं। इसी गुणा-भाग और विरोधी दलों की रणनीति से कुछ ऐसा निकलकर सामने आया है जो बीजेपी की चिंता का सबब बन चुका है।
बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा कई तरह की रणनीति पर काम कर रही है। साथ ही सवर्ण मतदाताओं को लुभाने के लिए भी तमाम कोशिशें की जा रही हैं। एक हफ्ते पहले सवर्ण आयोग के गठन का फैसला करना और पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड के जांच की मांग करना। इस बात की तरफ साफ इशारा कर रहा है, बीजेपी परेशान है और डैमेज कंट्रोल की कोशिश कर रही है।
दरअसल, सियासी पंडितों का यह कहना है कि भारतीय जनता पार्टी को इस बात का भान हो रहा है कि बिहार में उसका कोर वोटर उससे छिटक रहा है। माना जा रहा है कि नीतीश कुमार के साथ गठबंधन और जाति जनगणना को लेकर लिए गए फैसले से सवर्णों में बीजेपी से नाराजगी देखने को मिल रही है।
दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की जनसुराज भी सवर्ण वोटों में सेंधमारी की कोशिश कर रही है। जनसुराज ने 2024 में होने वाले चार विधानसभा उपचुनावों- बेलागंज, इमामगंज, रामगढ़ और तरारी में अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन सफल नहीं हो पाए लेकिन सवर्ण बहुल इलाकों में कुछ वोट जरूर हासिल किए।
आपको बता दें कि बिहार में करीब 30-35 सीटों पर ब्राह्मण और राजपूत प्रभावशाली हैं। प्रशांत किशोर खुद ब्राह्मण समुदाय से आते हैं, जिसका वे परोक्ष रूप से फायदा उठा रहे हैं। उनकी स्वच्छ राजनीति और बिहार में व्यवस्था परिवर्तन की बातें ऊंची जाति के युवाओं को आकर्षित कर रही हैं।
इसके अलावा बीजेपी का कोर वोटर छिटकने की एक और तस्दीक उसका लगातार गिरता ग्राफ भी है। 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 22 सीटें जीती थीं। लेकिन 2019 में उसे केवल 17 सीटों पर ही जीत मिली।
2024 आम चुनाव में पांच और सीटों का नुकसान हुआ और यह आंकड़ा 12 आ पहुंचा। बक्सर जैसे सवर्ण बहुल इलाके में मिथिलेश तिवारी की हार सवर्ण वोटों के बंटवारे का संकेत है। ऐसे में बिहार में सवर्ण वोटों को लेकर राजनीतिक दलों की चिंता और सक्रियता बढ़ गई है।
वहीं, बिहार में जब जाति आधारित सर्वेक्षण हुआ तो भारतीय जनता पार्टी ने इसका विरोध किया। लेकिन बाद में एक बार फिर सर्वेक्षण कराने वाले सीएम नीतीश कुमार से गठबंधन कर लिया, बल्कि केन्द्र से भी जातिगत जनगणना का ऐलान कर दिया। जिसके चलते सवर्णों का मानना यह है कि सरकार उनकी अनदेखी कर रही है।
सवर्णों की इस नाराजगी को कम करने के लिए बीजेपी प्रयासरत है। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अश्विनी चौबे द्वारा ललित नारायण मिश्रा हत्याकांड की दोबारा जांच की मांग इस कोशिश पहला, तो नीतीश कुमार सरकार द्वारा सवर्ण आयोग का गठन करना दूसरा हिस्सा है।
कांग्रेस की सवर्ण केंद्रित रणनीति भी भाजपा के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। वर्ष 2023 में कांग्रेस ने बिहार में 38 में से 25 जिला अध्यक्ष सवर्ण समुदाय से बनाए, जिनमें 12 भूमिहार, 8 ब्राह्मण और 6 राजपूत शामिल हैं। यह रणनीति सवर्ण मतदाताओं, खासकर ब्राह्मणों से फिर से जुड़ने की कोशिश थी।
मिथिला में, जहां ब्राह्मणों की अच्छी खासी आबादी है, कांग्रेस ने मदन मोहन झा जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाया। 18 जनवरी को संविधान सुरक्षा सम्मेलन और 5 फरवरी को जगलाल चौधरी जयंती जैसे राहुल गांधी के पटना दौरों ने ब्राह्मणों और अन्य समुदायों के बीच पार्टी की सक्रियता बढ़ा दी।
कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को नौकरी दो-पालन रोको यात्रा की कमान सौंपी है, जो ब्राह्मण युवाओं को शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों से जोड़ रही है। कन्हैया की ब्राह्मण भूमिहार पृष्ठभूमि और भाषण कला मिथिलांचल और अन्य क्षेत्रों में युवा ब्राह्मणों को आकर्षित कर रही है।
आजादी के बाद से 1990 तक कांग्रेस बिहार की राजनीति पर हावी रही और ब्राह्मणों की पसंदीदा पार्टी रही। बिहार में 18 मुख्यमंत्रियों में से कई (जैसे श्री कृष्ण सिंह, जगन्नाथ मिश्रा) ब्राह्मण या उच्च जाति समुदाय से थे। आज भी हर गांव में कुछ ब्राह्मण मतदाता, खासकर पुरानी पीढ़ी, कांग्रेस को अपनी ऐतिहासिक पार्टी के रूप में देखते हैं।
बिहार में उच्च जाति के वोटों को लेकर राजनीतिक दलों की बढ़ती सक्रियता इस बात का संकेत है कि यह समुदाय आगामी चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। भाजपा अपने कोर वोटर्स को बचाने, तो कांग्रेस और जनसुराज जैसी पार्टियाँ उच्च जातियों को अपनी ओर आकर्षित करने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि कौन इसमें कामयाब होता है।