नीतीश कुमार व लालू प्रसाद यादव (डिजाइन फोटो)
पटना: बिहार में चुनाव की औपचारिक दुंदुभी साल की आखिरी तिमाही में बजने वाली है, लेकिन अनौपचारिक माहौल बन चुका है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन और नीतीश कुमार की लीडरशिप वाले NDA के बीच राज्य की सियासी बिसात पर शह और मात का खेल खेला जाने वाला है।
बिहार के चुनावी माहौल में हम भी यहां के वर्तमान राजनैतिक समीकरणों के साथ-साथ सूबे के सियासी अतीत की कहानियां लेकर आप तक आ रहे हैं। कहानियों की इस किश्त में बात लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के गठन और उसके सियासी सफर की…
इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में केंद्र में जनता दल की सरकार थी। 4 जुलाई 1997 की शाम को प्रधानमंत्री गुजराल ने दिल्ली स्थित अपने आवास पर एक बैठक बुलाई। बैठक में लालू प्रसाद भी शामिल हुए। बैठक में लालू प्रसाद ने कहा कि वे बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे, लेकिन उन्हें जनता दल का अध्यक्ष बने रहने दिया जाए। उस समय लालू प्रसाद पर सीबीआई का शिकंजा कस रहा था।
सीबीआई की चार्जशीट को देखकर लालू के समर्थन में कोई नेता खड़ा नहीं दिखाई दिया। यहां तक कि गुजराल ने कहा था कि लालू जी, आपको सीएम पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। बैठक का नतीजा देखकर लालू प्रसाद समझ गए कि उनकी स्थिति बदलने वाली है। लेकिन अगले ही दिन उन्होंने दिल्ली स्थित अपने आवास पर राष्ट्रीय जनता दल का गठन कर दिया।
राजद के गठन के समय 17 लोकसभा सांसद और 8 राज्यसभा सांसद मौजूद थे, जो इस बात का प्रमाण था कि देश के बड़े नेता भले ही लालू के साथ खड़े न हों, लेकिन बिहार के नेता लालू के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने को तैयार थे। पार्टी के गठन के साथ ही लालू प्रसाद को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। तब से लेकर आज तक वे राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने हुए हैं।
चारा घोटाले में लालू यादव पर सीबीआई का शिकंजा कसता जा रहा था। लालू प्रसाद को भी समझ आ गया था कि अब वे चाहकर भी जेल जाने से नहीं बच सकते। ऐसे में मुख्यमंत्री की कुर्सी और अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उन्होंने पहले प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल से बात की, लेकिन धीरे-धीरे उनके अपने ही लोग उनका साथ छोड़ने लगे।
एक समय तो ऐसा भी आया कि जनता दल के बड़े नेता रामविलास पासवान और शरद यादव ने भी लालू प्रसाद के इस्तीफे की मांग कर दी। दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टियों ने लालू प्रसाद के इस्तीफे के लिए इंद्र कुमार गुजराल पर दबाव बनाना शुरू कर दिया।
लालू प्रसाद ने अपनी किताब ‘गोपालगंज टू रायसीना, माई पॉलिटिकल जर्नी’ में राष्ट्रीय जनता दल के गठन के पीछे की कहानी बताते हुए लिखा है, “जुलाई, 1997 में जनता दल के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होना था। मुझे समझ में नहीं आया कि शरद यादव ने आखिरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फैसला क्यों किया।
पार्टी मेरे नेतृत्व में जीत रही थी, जबकि बिहार में दूसरी बार सरकार बन रही थी, केंद्र में भी सरकार थी, उन्हें मेरा समर्थन करना था लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा मुझे हटाकर खुद पार्टी अध्यक्ष बनने की थी। यह पूरी स्थिति देखने के बाद मेरा धैर्य खत्म हो गया और मैंने सोचा कि अब बहुत हो गया।”
जब लालू यादव ने 5 जुलाई को राजद का गठन किया तो किसी ने इसे बड़ी घटना नहीं माना, लेकिन 20 दिन बाद यानी 25 जुलाई को जब लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को विधायक दल का नेता घोषित करके उन्हें बिहार की पहली महिला मुख्यमंत्री बनाने की चाल चली तो लोगों को लालू का खेल समझ में आ गया।
दरअसल, लालू बिहार में अपना प्रभाव नहीं खोना चाहते थे और सरकार में अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहते थे। लालू प्रसाद के इस राजनीतिक फैसले की हर जगह आलोचना हुई। राबड़ी के मुख्यमंत्री बनने के बाद 30 जुलाई को चारा घोटाला मामले में लालू प्रसाद ने सरेंडर कर दिया और फिर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू हुई, जिसके बाद उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
साल 2000 में हुए विधानसभा चुनाव लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और उनकी पार्टी आरजेडी के लिए लिटमस टेस्ट थे। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी। जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो बीजेपी और एनडीए नेताओं को बड़ा झटका लगा। आरजेडी 124 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
हालांकि, किसी गठबंधन के बहुमत न होने के बावजूद नीतीश कुमार राज्य के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उन्हें महज 7 दिनों के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद लालू प्रसाद ने अपनी राजनीतिक सूझबूझ और रणनीति के दम पर राबड़ी देवी को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनवाने में सफलता हासिल की। राबड़ी देवी 2005 तक बिहार की कुर्सी पर रहीं।
2004 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर राजद का बोलबाला रहा और पार्टी ने राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 22 पर जीत दर्ज की। लालू प्रसाद केंद्र में रेल मंत्री बने, जबकि पार्टी के वरिष्ठ नेता और लालू के करीबी रघुवंश प्रसाद सिंह ग्रामीण विकास मंत्री बने।
लेकिन 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव से राजद का प्रभाव कम होने लगा। एनडीए में शामिल भाजपा और जदयू ने राज्य में लालू के 15 साल के शासन के दौरान हुए अपराध को ‘जंगलराज’ बताया। यह चुनाव जंगलराज के नाम पर हुआ और इसका खामियाजा राजद को भुगतना पड़ा। फरवरी में हुए इस चुनाव में राजद को 75 सीटें मिलीं।
इस चुनाव में जब किसी भी पार्टी (गठबंधन) को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। जिसके बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में आरजेडी को 54 सीटें मिलीं और बीजेपी के समर्थन से नीतीश कुमार दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने।
2009 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी की बुरी हार हुई और 40 लोकसभा सीटों में से आरजेडी को सिर्फ 4 सीटों पर जीत मिली। इसके बाद 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी अपने सबसे बुरे दौर में चली गई और पार्टी सिर्फ 22 विधानसभा सीटों पर सिमट गई।
इस चुनाव के बाद यहां तक कहा जाने लगा कि अब आरजेडी अपने आखिरी दौर में चली गई है। दूसरी तरफ चारा घोटाला मामला एक बार फिर लालू के गले की फांस बनता जा रहा था। 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी एक बार फिर बुरी तरह हार गई और पार्टी को सिर्फ 4 सीटें मिलीं। लेकिन उसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले लालू यादव के इस मास्टरस्ट्रोक ने एक बार फिर पार्टी को खड़ा कर दिया।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार ने एनडीए का साथ छोड़ दिया था, जिसके परिणामस्वरूप 2014 के लोकसभा में जेडीयू की हालत आरजेडी जैसी हो गई थी। ऐसे में लालू यादव ने मौका देखकर कभी अपने धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करके आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया। लालू यादव के इस फैसले ने उनकी पार्टी आरजेडी के लिए संजीवनी का काम किया।
2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और 80 सीटें जीतीं। जबकि जेडीयू को 71 सीटें मिलीं। नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार बनी। इस सरकार में लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव राज्य के उपमुख्यमंत्री बने जबकि उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव स्वास्थ्य मंत्री बने।
इस चुनाव ने जहां लालू यादव और आरजेडी को मजबूती दी, वहीं उनके दोनों बेटों ने भी बिहार में खुद को नेता के तौर पर स्थापित किया। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार एनडीए में वापस आ गए। इस चुनाव में आरजेडी की हालत फिर से 2014 जैसी ही रही।
अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव से पहले लालू यादव चारा घोटाले में रांची जेल में थे, इसलिए पार्टी की जिम्मेदारी तेजस्वी के कंधों पर थी। इस चुनाव में आरजेडी एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी। आरजेडी को 75 सीटें मिलीं, लेकिन बीजेपी और जेडीयू गठबंधन के बहुमत के कारण वह सरकार बनाने में विफल रही। हालांकि, साल 2022 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर आरजेडी के साथ महागठबंधन की सरकार बनाई।
इस सरकार में तेजस्वी यादव फिर से राज्य के उपमुख्यमंत्री बने और तेज प्रताप यादव को पर्यावरण मंत्री बनाया गया। लेकिन नीतीश और लालू का गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला और 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार एक बार फिर एनडीए खेमे में लौट आए। आरजेडी को एक बार फिर 2024 के लोकसभा चुनाव में नीतीश के साथ न होने का नुकसान उठाना पड़ा और पार्टी को महज 4 सीटों से संतोष करना पड़ा।
2024 लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान को सियासी विश्लेषक आरजेडी के लिए बड़े नुकसान के तौर पर नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि 2014 के बाद से आम चुनाव मोदी के चेहरे पर होता आ रहा है। जबकि राज्य के चुनावी समीकरण अलग होते हैं। यानी मोटे तौर पर उनका यह कहना है कि विधानसभा चुनाव में आरजेडी मजबूती से मुकाबला करती हुई दिखाई देगी। अगर एक बार फिर आरजेडी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो नीतीश कुमार को 2015 वाली गलती का पछतावा भी हो सकता है।