किसान आत्महत्या के लिए कौन जिम्मेदार ? (सौजन्यः सोशल मीडिया)
नवभारत डिजिटल डेस्क: दीया तले अंधेरा इसे ही तो कहेंगे! विश्व की चौची बड़ी अर्थव्यवस्था कहला कर हम गर्व से अपना सीना कितना ही फुला लें लेकिन इस राष्ट्र के महाराष्ट्र में जनवरी से मार्च तक 3 माह में 767 किसानों की आत्महत्या की खबर आती है, तो मन सुन्न हो जाता है। क्या यह हमारी प्रगति के दिखाये का खोखलापन नहीं है कि आजादी के बाद से 77 वर्ष बीत जाने पर भी हमारे अन्नदाता और वस्त्रदाता किसान जो अपने कठोर परिश्रम के स्वेद बिंदुओं से धरती को सींचते हैं, खुदकुशी करने को बाध्य हैंर क्या यही हमारे सपनों का देश है, जिसमें किसान की जान की कोई कीमत नहीं है?
महाराष्ट्र के सतापारी और विपक्ष के कितने ही विधायक-सांसद ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। वे किसानों की समस्याओं व दुर्दशा से अलीभांति अवगत हैं। कर्ज का बोझ, फसलों को उचित दाम नहीं मिलना, नेताओं की वादाखिलाफी और उपेक्षा व अपमान करने वाली असंवेदनशील बयानबाजी यही किसानों के नसीय में है। जब किसानों को लगता है कि भारी मुसीवतों के भंवर में जो अकेले फंस गए हैं और कहीं से कोई सहारा या राहत मिलने की उम्मीद नहीं है तो असहनीय तनाव से रास्त होकर मौत को गले लगा लेते हैं।
हालत इतनी दयनीय है कि बैल खरीदने या किराए से लेने के लिए पैसे न होने की वजह से लातूर की अहमदपुर तहसील के अंबादास पवार नामक 75 वर्षीय बुजुर्ग किसान ने अपनी पत्नी मुक्ताबाई की मदद से खुद ही खेत में हल जोता। मतलब यही है कि 1958 में किसानों की दुर्दशा पर बनी महबूब खान की फिल्म ‘मदर इंडिया’ के समान हालात आज भी हैं। उस फिल्म में भी नरगिस को हल जोतते दिखाया गया था। यह विवशता की पराकाष्ठा है। कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि मध्यप्रदेश या राजस्थान में किसान इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्या नह करते तो महाराष्ट्र में ही ऐसा क्यों होत है? महाराष्ट्र का किसान स्वाभिमान है। वह शिक्षा के महत्व को जानता और अपनी संतान को डॉक्ट इंजीनियर, प्रोफेसर बनाने का सपना देखता है। खुद आधा पेट भोज करके बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठात है। क्या सुनहरे भविष्य का सपन देखना उसके लिए गुनाह है?
विधानसभा चुनाव से पहले किसानों को कर्जमाफी और लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देने का वादा आरती की थाली से कपूर की भांति उड़ गया। सोयाबीन और कपास को उचित मूल्य नहीं मिल पाया कभी कपास और सोने का भाव आसपास हुआ करता था। किसान कपास बेचकर कुछ मात्रा में सोना खरीदते थे। नौकरीपेशा आदमी की तुलना में खेती-किसानी करने वाले की इज्जत व स्तथा ज्यादा रहा करता था। समय बदल गया किसान मौसम की मार और अभाव झेलते हुए कठोर परिश्रम करता है। असंवेदनशील नेता अपने लंच या डिनर की थाली देखकर क्या कभी उस किसान का स्मरण करते हैं, जिसने चह अन्न उपजाया है। यदि उनके मन में कृतज्ञता का तनिक भी भाव होता तो महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दैवी मौत नहीं होती।
करोड़ों रुपयों की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाने वाले शास्स्नकर्ताओं की प्राथमिकता में कहीं भी किसान नाम का जीव नहीं है। 1965 में जब विदेश से अनाज मंगाने की नौबत आई थी तो इन्हों किसानों ने अपने परिश्रम से देश में हरित क्रांति लाई थी। उस वक्त लोग अमेरिका व आस्ट्रेलिया से आया ऐसा अनाज खाने को बाध्य थे, जिसे पशु भी खाना पसंद न करें। शायद कुछ पुराने नेताओं को लाल गेहूं और माइलो नामक ज्वार की याद होगी। प्रगति में संतुलन रखना आवश्यक है। औद्योगिक प्रगति व महामागों का निर्माण ही सबकुछ नहीं है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान है, जिनको उपेक्षा बहुत महंगी पड़ेगी, नकली बीज और मिलावटी खाद की शिकायतें आती रहती हैं। क्या उसका निदान हुआ? फसल बीमा से कितनों को लाभ हुआ? आज की माहंगाई में किसानों को सिर्फ 6,000 रुपया वार्षिक देना कितना सुसंगत है। समस्या की जड़ में जाकर उसका स्थाई समाधान खोजा जाए।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा