अमरावती तारखेड़ा के पार्थिव गणेश मंदिर के गणपति
अमरावती : महाराष्ट्र का एकमात्र पार्थिव गणेश मंदिर अमरावती के तारखेड़ा में स्थित है। पार्थिव गणेश से तात्पर्य हस्तनिर्मित मिट्टी की मूर्तियों की वार्षिक स्थापना से है। इस पार्थिव गणेश मंदिर के गणपति का इतिहास 350 साल पुराना है और हरिचंद्र पाटिल की 7 पीढ़ियों से यह पारिवारिक परंपरा यहां लगातार चली आ रही है।
1835 में जन्मे हरिश्चंद्र नारायण पाटिल अमरावती के तत्कालीन मोकद्दम देशमुख थे। गांव में उनका सम्माननीय स्थान था। मुनि महाराज की गणेशोत्सव परंपरा की शुरुआत उन्होंने अपने वाडे से की थी। परंपरागत रूप से वे स्वयं भगवान गणेश की मिट्टी की मूर्तियां बनाते थे और इसे आकर्षक रंग देते थे। मुनि महाराज छोटी-छोटी मूर्तियां बनाते थे। लेकिन उनके बाद हरिश्चंद्र पाटिल ने बड़ी मूर्ति बनानी शुरू कीं। यह उत्सव आगे चलकर ‘हरिश्चंद्र पाटिल के गणपति’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ जो आज तक जारी है।
पार्थिव गणेश मूर्ति की खास बात यह है कि इस मूर्ति को पूरे साल सुरक्षित रखने के लिए किसी भी तरह के रसायन का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। मूर्ति बनाने में काली मिट्टी, भस्व मिट्टी, राख, रूई और घोड़े की लीद का उपयोग किया जाता है। कुम्हार से यह विशेष मिट्टी लाते हैं। यह मूर्ति अंदर से खोखली होती है। मूर्ति को टूटने से बचाने के लिए एक विशेष तकनीक से बनाया जाता है। इसलिए यह मूर्ति साल भर वैसी ही रहती है। इसे रंगने में उच्च गुणवत्ता वाले रंगों का उपयोग किया जाता है, इसलिए मूर्ति की चमक भी लंबे समय तक बनी रहती है। हरिश्चंद्र पाटिल खुद हाथ से मिट्टी के गणपति बनाते थे। बाद में बाजीराव ने इस परंपरा को जारी रखा। अब इस परंपरा का निर्वहन रामराव के बेटे श्याम पाटिल कर रहे हैं।
श्याम पाटिल ने मंदिर से जुड़ी एक पुरानी याद ताज़ा करते हुए बताया कि पहले यहां की मूर्ति का विसर्जन एकवीरा देवी मंदिर के कुएं में किया जाता था। लेकिन उसके बाद गांधी चौक के तुलजागिर वाड़ा के कुएं में विसर्जन शुरू हो गया। इसी बीच करीब 18 साल पहले तुलजागीर वाड़ा के कुएं में मूर्ति विसर्जन पर उस समय प्रतिबंध लगा दिया गया था, इसलिए उक्त मूर्ति को तारखेड़ा क्षेत्र के एक कुएं में विसर्जित कर दिया गया। लेकिन उस साल एक बड़ी घटना घटी। तुलजागिर वाड़े का कुआँ, जो कभी नहीं सूखा था, वह सूख गया। क्षेत्र में महामारी फैल गई। उस समय सभी को यह लगा कि तुलजागीर वाड़ा के कुएं में मूर्ति का विसर्जन न होने से ऐसा हुआ है। जिसके बाद मूर्ति को तुलजागीर वाड़ा के उसी कुएं में विधिवत विसर्जित किया जाने लगा, जो आज भी जारी है।