
भारतीय सेना के अधिकारियों के साथ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (सोर्स- सोशल मीडिया)
16 December Vijay Diwas: 16 दिसंबर 1971 भारतीय इतिहास की उन तारीखों में से एक है, जो सिर्फ कैलेंडर पर दर्ज नहीं, बल्कि राष्ट्र की चेतना में अंकित है। यह वह दिन है, जब भारतीय सेना ने अपने अदम्य साहस, अनुशासन और रणनीतिक कौशल से न केवल युद्ध जीता, बल्कि दक्षिण एशिया के भू-राजनीतिक नक्शे को हमेशा के लिए बदल दिया। महज 13 दिनों में पाकिस्तान की सबसे बड़ी सैन्य हार दर्ज हुई और उसी क्षण एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ।
आज भी जब उस दिन की तस्वीरें देखी जाती हैं, तो भारतीय सैनिकों की दृढ़ता, नेतृत्व की स्पष्टता और युद्ध की निर्णायक रणनीति रगों में रोमांच भर देती है। ‘विजय दिवस’ सिर्फ सैन्य जीत का प्रतीक नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों और अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने की ऐतिहासिक मिसाल है।
आज, 54 वर्षों बाद, बांग्लादेश एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता, हिंसा और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। परिस्थितियां भले अलग हों, लेकिन सवाल वही हैं लोकतंत्र, पहचान और सम्मान के। ऐसे समय में 16 दिसंबर 1971 की याद हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि जब किसी समाज की आवाज दबाई जाती है, तो उसका परिणाम कितना भयावह हो सकता है।
14 अगस्त 1947 को धर्म के आधार पर पाकिस्तान अस्तित्व में आया। यह देश दो भौगोलिक रूप से अलग हिस्सों में बंटा था पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। आबादी के लिहाज से पूर्वी पाकिस्तान भारी था; देश की लगभग 56% जनसंख्या वहीं रहती थी और उनकी मातृभाषा बांग्ला थी।
इसके विपरीत पश्चिमी पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी, बलूची और पश्तो भाषाएं बोली जाती थीं। सत्ता, सेना और प्रशासन पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का पूर्ण नियंत्रण था। यही असंतुलन आगे चलकर टूटन की सबसे बड़ी वजह बना।
पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों को बांग्ला भाषा से आपत्ति थी। उनका तर्क था कि इस भाषा पर “हिंदू प्रभाव” है। परिणामस्वरूप बांग्ला को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देने से इनकार कर दिया गया और सरकारी कामकाज में इसके उपयोग पर रोक लगा दी गई।
मार्च 1948 में ढाका दौरे के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना ने स्पष्ट घोषणा कर दी “पाकिस्तान की राजकीय भाषा सिर्फ उर्दू होगी।” यही वह क्षण था, जब पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष ने विद्रोह का रूप लेना शुरू किया।
बांग्ला भाषा की उपेक्षा ने लोगों के भीतर गहरा आक्रोश पैदा किया। 1952 में भाषा आंदोलन भड़का, जिसमें कई छात्र शहीद हुए। यह आंदोलन सिर्फ भाषा के अधिकार तक सीमित नहीं था; यह सम्मान, संस्कृति और अस्तित्व की लड़ाई थी।
इसके बाद आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक भेदभाव के खिलाफ आवाज और बुलंद होती गई। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को प्रशासन, पुलिस और सत्ता तंत्र से लगातार अपमान झेलना पड़ता था।
इसी दौर में अवामी लीग और उसके नेता शेख मुजीबुर्रहमान पूर्वी पाकिस्तान की उम्मीद बनकर उभरे। उन्होंने आर्थिक असमानता, विकास में भेदभाव और राजनीतिक उपेक्षा के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई।
1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद उन्होंने दोनों हिस्सों के समान विकास की मांग रखी, जिससे पश्चिमी पाकिस्तान के शासक और भी असहज हो गए। 1968 में उन्हें ‘अगरतला षड्यंत्र केस’ में फंसा दिया गया।
1970 के आम चुनावों में अवामी लीग ने पूर्वी पाकिस्तान की 169 में से 167 सीटें जीत लीं। जनादेश स्पष्ट था शेख मुजीबुर्रहमान प्रधानमंत्री बनने वाले थे। लेकिन सैन्य तानाशाह याह्या खान और जुल्फिकार अली भुट्टो सत्ता हस्तांतरण के लिए तैयार नहीं थे। इस टालमटोल ने पूर्वी पाकिस्तान में जनआक्रोश को विस्फोटक स्तर तक पहुँचा दिया।
25 मार्च 1971 की रात पाकिस्तानी सेना ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया। ढाका खून से लाल हो गया। विश्वविद्यालयों, छात्रों, बुद्धिजीवियों, हिंदुओं और आम नागरिकों को निशाना बनाया गया।
ढाका विश्वविद्यालय को श्मशान में बदल दिया गया। महिलाओं के साथ बलात्कार, बच्चों तक की हत्या—यह एक सुनियोजित नरसंहार था। शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन उन्हें जानबूझकर शहीद नहीं बनने दिया गया।
नरसंहार के बाद लाखों लोग जान बचाकर भारत पहुंचे। नवंबर 1971 तक शरणार्थियों की संख्या एक करोड़ से अधिक हो गई। असम, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा पर भारी दबाव पड़ा।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस संकट को उठाया, लेकिन दुनिया की चुप्पी भारत के लिए निराशाजनक थी।
मुक्ति वाहिनी संघर्ष कर रही थी, लेकिन अकेले जीत संभव नहीं थी। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर हमला किया और भारत सीधे युद्ध में कूद पड़ा। भारतीय थलसेना, वायुसेना और नौसेना ने संयुक्त अभियान चलाया। सिर्फ 13 दिनों में पाकिस्तान की सेना टूट गई।
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ढाका में जनरल ए.ए.के. नियाजी ने 93,000 सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा सैन्य सरेंडर। उसी दिन बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र बना। यह जीत केवल हथियारों की नहीं थी, बल्कि भारत की रणनीतिक सोच, कूटनीति और मानवीय प्रतिबद्धता की विजय थी।






