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नवभारत डिजिटल डेस्क: जिस शांति के नाम पर डोनाल्ड ट्रंप नोबल प्राइज मांग रहे थे, उसके पीछे हुए युद्ध में कितने बच्चे अनाथ हो गए या मारे गए, इसके लिए कोई चिंतित नहीं है। युद्ध के दौरान कितने बच्चों की जिंदगी बर्बाद हो गई, इस बात पर कहीं बहस तक नहीं हो रही है। नोबल की चाह रखने वाले ट्रंप ने बच्चों के लिए कभी कोई स्पेशल आर्थिक पैकेज दिया है, उनकी समस्या कैसे खत्म हो इस पर किसी राष्ट्र से बात की हो या फिर राष्ट्राध्यक्षों को यह कहा हो कि वह बच्चों के स्कूल या अस्पताल के आसपास हमला नहीं करें? दुनिया का हाल बहुत खराब है। युद्ध विराम का श्रेय ले रहे ट्रंप इस बात का कभी कोई कदम क्यों नहीं उठाते कि रूस-यूक्रेन के युद्ध में हजारो बच्चे मारे गए या घायल हुए। इजराइल-हमास के बीच चल रही जंग में 20,000 से अधिक बच्चे मारे गए और कम से कम इतने ही घायल हैं। पूरी दुनिया इस बात से परेशान है कि डिजिटल स्कैम बढ़ रहे हैं, लेकिन सिवाय एक-दो उपाय के अतिरिक्त कोई ऐसा काम नहीं हो रहा, जिससे दुनिया के बच्चे साइबर क्रिमिनलों की साजिशों के शिकार नहीं हों। तस्करी के लिए बच्चों को किडनैप करना, उनसे भीख मंगवाना, तस्करी में उनका उपयोग करना, अब ये सब बातें चिंता का सबब नहीं रहीं।
हालात ये हैं कि अब बच्चे पूरी दुनिया में कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। इंटरनेट बच्चों की जिंदगी को लील रहा है।विस्थापन और पलायन की पीड़ाः बच्चों की जिंदगी सबसे अधिक युद्ध क्षेत्रों में नारकीय हो चुकी है। जब भी कहीं, किसी पर हमला होता है, तो उस क्षेत्र में बच्चों को अपने माता-पिता और संरक्षकों के साथ पलायन करना पड़ता है। ऐसे में बिना युद्ध का हिस्सा हुए भी बच्चे विस्थापन और पलायन की पीड़ा क्या होती है, वो भुगत रहे होते हैं। युद्ध के डर और उससे उपजी समस्याओं-बीमारियों के कारण इन इलाकों के बच्चों का स्वास्थ्य युद्ध जैसी स्थितियों का हो जाता है। वह हिंसा के उस घिनौने रूप से रूबरू होते हैं और यह बात उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए भावनात्मक संकट का शिकार बना डालती है। इसके नुकसान स्वरूप बच्चे न सिर्फ गरीबी झेलते हैं बल्कि शिक्षा से भी वंचित रहते हैं और मासूमियत तो बचपन में ही उनसे हमेशा के लिए छिन जाती है।
बच्चों की मुसीबतें कितनी ज्यादा हैं अगर यह देखना है, तो गाजा या फिर किसी दूसरे युद्ध क्षेत्र में वितरित होने वाले भोजन या दवाओं के समय मचने वाली भगदड़ और छीना-झपटी के दृश्यों को देखिए। बेघर हुए बच्चों के पालनहार जब जिंदगी की जद्दोजहद में व्यस्त होते हैं, उसी समय घात लगाए बैठे शिकारी बच्चों को यौन हिंसा का शिकार बना डालते हैं। युद्धग्रस्त क्षेत्रों में सबसे बुरी हालत बच्चों की होती है। उस पर तुर्रा यह कि शांति के प्रयास के लिए नोबल की मांग हो या फिर युद्ध रुकवाने का श्रेय लेने की बात हो, रोज-रोज ये बातें बहस का विषय बनती हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया के करीब तीस करोड़ बच्चे दुरावस्था में हैं। इनके पास जीने के लिए जो मूलभूत सुविधाएं होनी चाहिए, वह नहीं हैं। ऐसे में दुनिया को एक आदर्श नागरिक की जगह ये अपराधी बच्चे मिल रहे हैं। स्कूलों की टूटती छतें, मिलने वाले भोजन में मरी छिपकलियां और कीड़ों का मिलना आखिर किस बात का द्योतक हैं? अस्पतालों में जब उन्हें दवा की जगह जहर मिलता है, तो यह जिम्मेदारी किसकी होती है, मां-बाप की या उस जिम्मेदार सरकार की, जो खुद को देश का पालनहार समझती है?
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जब भी कहीं, किसी पर हमला होता है, तो उस क्षेत्र में बच्चों को अपने माता-पिता और संरक्षकों के साथ पलायन करना पड़ता है। ऐसे में बिना युद्ध का हिस्सा हुए भी बच्चे विस्थापन और पलायन की पीड़ा क्या होती है, वो भुगत रहे होते हैं। युद्ध के डर और उससे उपजी समस्याओं-बीमारियों के कारण इन इलाकों के बच्चों का स्वास्थ्य युद्ध जैसी स्थितियों का हो जाता है। वह हिंसा के उस घिनौने रूप से रूबरू होते हैं और यह बात उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए भावनात्मक संकट का शिकार बना डालती है।
लेख- मनोज वाष्णेय के द्वारा