विश्व साड़ी दिवस हर साल 21 दिसंबर को मनाया जाता है. इस दिन को मनाने का मकसद, साड़ियों की सुंदरता, सांस्कृतिक महत्व, और कारीगरों के योगदान को सराहना करना है।
विश्व साड़ी दिवस हर साल 21 दिसंबर को मनाया जाता है। (सौजन्य: सोशल मीडिया)
विश्व साड़ी दिवस हर साल 21 दिसंबर को मनाया जाता है। इस दिन को मनाने का मकसद, साड़ियों की सुंदरता, सांस्कृतिक महत्व, और कारीगरों के योगदान की सराहना करना है। साड़ी, भारतीय परिधान का एक अहम हिस्सा है और यह भारतीय महिलाओं की पहचान का प्रतीक है। साड़ी की प्रकार के बारे में जानतें है।
पटोला साड़ी, रेशम से बुनी गई एक उत्कृष्ट कृति है और समृद्ध इतिहास से भरी हुई है, यह एक प्रतिष्ठित परिधान है जिसे इसके जटिल डिजाइन और अद्वितीय शिल्प कौशल के लिए संजोया जाता है। भारत के गुजरात के प्राचीन शहर पाटन से उत्पन्न, ये रेशम की साड़ियाँ भारतीय कपड़ा कला की स्थायी विरासत का प्रमाण हैं।
पैठणी साड़ी, महाराष्ट्र की पारंपरिक साड़ी है और इसे बनाने का तरीका और इसकी खासियतें इस प्रकार हैं। पैठणी साड़ी, महीन रेशम से बनी होती है। इसे हाथ से बुना जाता है और इसमें मशीन का इस्तेमाल नहीं होता। पैठणी साड़ी में ज़री का काम होता है, जो आमतौर पर सोने या चांदी के धागों से बना होता है। पैठणी साड़ी के पल्लू और बॉर्डर पर ज़री का काम होता है।
यह बेहद मजबूत होता है और पूरी दुनिया में अपने नर्म टेक्स्चर के लिए जाना जाता है। यह सिल्क के सबसे शुद्ध प्रकारों में गिना जाता है। इसकी खासियत इसके रंग हैं। कोसा सिल्क प्राकृतिक रूप से हल्के गोल्डन रंग में मिलता है जिसे पलाश, लाख और गुलाब की पंखुडिय़ों से बने रंगों से डाई किया जाता है।
कांजीवरम साड़ियां दुनिया भर में अपनी शिल्प कौशल और गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं।कांजीवरम साड़ियां, तमिलनाडु के कांचीपुरम शहर में बनती हैं और रेशम से बुनी जाती हैं। ये साड़ियां अपनी शानदार बनावट, जटिल डिज़ाइन, और जीवंत रंगों के लिए मशहूर हैं।कांजीवरम साड़ियों को भारतीय संस्कृति और विरासत में अहम माना जाता है। ये साड़ियां, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, और आंध्र प्रदेश की महिलाएं दुल्हन और खास मौकों पर पहनती हैं।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में जामदानी साड़ियां बनाई जाती हैं।वाराणसी के चोलापुर गांव में जामदानी बुनाई की परंपरा है। यहां के बुनकर पीढ़ियों से इस शिल्प को अपना रहे हैं। जामदानी साड़ियों को बनाने के लिए कढ़ुआ तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इस तकनीक में, साड़ी की जमीन में डिजाइन समाई रहती है। जामदानी साड़ियों में कई तरह के रंग होते हैं. यह रंगकाट तकनीक से बनाई जाती है। जामदानी साड़ियों में सोने-चांदी की पालिशिंग होने पर इनकी कीमत लाखों में जाती है।
चंदेरी फैब्रिक में बदलाव 1890 में शुरू हुआ, जब बुनकर हाथ से बने यार्न के बजाय मिलमेड यार्न से कपड़ा बुनने लगे। 1970 के करीब आते-आते वीवर्स ने तानेबाने में ताना कॉटन का और बाना सिल्क का रखा। इससे कपड़े पहले से मजबूत हुए। नलफर्मा, डंडीदार, चटाई, जंगला और मेहंदी वाले हाथ जैसे चंदेरी साड़ी के पैटर्न काफी पॉपुलर हुए।
राजस्थान के जयपुर में बंधेज की साड़ियां देखने को मिलती है। यहां इतनी वैरायटी मिल जायेगी, जिसे देख महिलाएं थक जाती है। राजस्थान का इतिहास, कल्चर, खान पान और यहां का पहनावा देश भर में मशहूर है। यहां साड़ियों की कई वैरायटी देखने को मिलती है।
बनारसी साड़ी एक विशेष प्रकार की साड़ी है जिसे विवाह आदि शुभ अवसरों पर हिन्दू स्त्रियाँ धारण करती हैं। उत्तर प्रदेश के चंदौली, बनारस, जौनपुर, आजमगढ़, मिर्जापुर और संत रविदासनगर जिले में बनारसी साड़ियाँ बनाई जाती हैं। इसका कच्चा माल बनारस से आता है।रेशम की साड़ियों पर बनारस में बुनाई के संग ज़री के डिजाइन मिलाकर बुनने से तैयार होने वाली सुंदर रेशमी साड़ी को बनारसी रेशमी साड़ी कहते हैं।