
संसद में क्यों नहीं होती स्वस्थ बहस (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: केंद्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बढ़ती जा रही कटुता संसदीय लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है। मर्यादा व गरिमा की चिंता किसी को भी नहीं है। मतभेद होना स्वाभाविक है लेकिन अब इसमें शत्रुता की झलक दिखने लगी है। सत्तापक्ष को अपना बड़प्पन व उदार रवैया दिखाना चाहिए लेकिन शीत सत्र के पहले ही दिन माहौल गर्म हो उठा। प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को सीख देते हुए कहा कि संसद का उपयोग ड्रामा नहीं, डिलीवरी के लिए होना चाहिए। उन्होंने जैसा कहा, ठीक वैसा ही जवाब मिला।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पलटवार करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने संसद के समक्ष मुख्य मुद्दों की बात करने की बजाय फिर ड्रामेबाजी की डिलीवरी की है। यह ड्रामेबाजी पिछले 11 वर्षों से चली आ रही है। कांग्रेस का आरोप है कि सरकार बगैर किसी चर्चा के आनन-फानन बिल पास करती है। पिछले मानसून सत्र में 12 बिल जल्दबाजी में पारित किए गए। इसके पहले भी किसान विरोधी कानून, जीएसटी, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के विधेयक बुलडोज किए गए थे। फिलहाल विपक्ष मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर संसद में बहस करने पर जोर दे रहा है जिसकी शुरूआत बिहार से की गई थी।
उल्लेखनीय है कि चुनाव आयुक्त सुखबीर सिंह संधू ने लिखित रूप में सतर्क किया था कि एसआईआर के दौरान वास्तविक नागरिकों को न सताया जाए। खासतौर पर बुजुर्गों, बीमारों व शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों को तकलीफ न दी जाए। विपक्ष मानता है कि मोदी सरकार ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा से कतराती है। वह एसआईआर व राजधानी में प्रदूषण के मुद्दे पर सरकार को घेरना चाहता है जबकि सरकार परमाणु ऊर्जा क्षेत्र, उच्च शिक्षा ढांचा सुधार, शेयर मार्केट विनियम सहित 10 विधेयक पारित कराने को प्राथमिकता दे रही है। पक्ष और विपक्ष में अनबन व टकराव इतना है कि संविधान दिवस पर संसद के केंद्रीय सभागार में प्रधानमंत्री मोदी और विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक साथ खड़े होकर संविधान की प्रस्तावना तो पढ़ी लेकिन दोनों नेताओं के बीच बातचीत बंद है।
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मोदी राहुल की पार्टी को मुस्लिम लीग या माओवादी कांग्रेस कहते हैं जबकि राहुल मोदी पर वोट चोरी का आरोप लगाते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस चुनाव आयोग पर दोषारोपण करने में लगी है। यदि बीजेपी अपने गुमान में है तो कांग्रेस भी लोकतांत्रिक मूल्यों का जतन नहीं कर रही है। कांग्रेस हाईकमांड के दबाव की वजह से कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन टल गया जिसमें मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार को सार्वजनिक रूप से दिखाना पड़ा कि उनके बीच मामला सुलझ गया। जहां तक बीजेपी की बात है, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जनवरी 2024 से अब तक अध्यक्ष के बिना पार्टी चला रहे हैं। संसद में इन दोनों नेताओं को छोड़कर अधिकांश मंत्री या बीजेपी सांसद भाषण देते नजर नहीं आते। सत्ता पक्ष के सांसद मोदी-मोदी का नारा लगाते हुए अपनी निष्ठा जताते रहते हैं। संसद में स्वस्थ बहस लायक माहौल ही नहीं बन पा रहा। क्या यह लोकतंत्र की विडंबना नहीं है?
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा






