ट्रक-ऑटो की भीषण टक्कर (सौजन्यः सोशल मीडिया)
अकोला: सुबह जब अधिकतर घरों में बच्चों के टिफ़िन भर रहे थे और लोग अपने-अपने काम पर निकल रहे थे उसी सुबह, अकोला के एक रास्ते पर ज़िंदगी ने करवट ली, और 2 मासूमों की दुनिया एक झटके में खत्म हो गई। पातूर से अंबाशी की ओर जा रहा एक छोटा यात्री ऑटो एक परिवार की रोज़मर्रा की सवारी तेज़ रफ्तार ट्रक की ओवरटेक करने की सनक का शिकार हो गया।
बाभुलगांव के पास आईटीआई कॉलेज के सामने जैसे ही ऑटो पहुंचा, एक ट्रक ने पीछे से टक्कर मारी और वह सीधे सामने से आ रहे एक अन्य ट्रक से जा भिड़ा। 2 मासूमों की सांसें वहीं थम गईं, और कुछ ही पलों में सबकुछ खून, चीख और टूटे सपनों में बदल गया।
13 वर्षीय पियूष रविंद्र सतरकर और 5 वर्षीय लिलाबाई ढोरे जिनके लिए यह दिन शायद स्कूल की तैयारी का था, या नानी के घर की यात्रा का वे अब लौटकर कभी नहीं आएंगे। वे अब नाम बन चुके हैं, तस्वीर बन चुके हैं, और उन आंसुओं का हिस्सा बन चुके हैं जिन्हें उनका परिवार कभी रोक नहीं पाएगा। घटना के समय ऑटो में कुल छह लोग सवार थे। तेज़ टक्कर से ऑटो उछला, और दोनों बच्चे तुरंत सड़क पर गिर पड़े। वहां मौजूद लोगों ने बताया कि वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे बस एक सन्नाटा था, और सड़क पर पसरी लाशें थी।
लिलाबाई की मां की आंखें अभी भी सूनी हैं। वो बार-बार कहती हैं, “उसने कल ही कहा था कि उसे नई चूड़ियाँ चाहिए…” अब उसके हाथ भी नहीं हैं, जिनमें चूड़ियाँ पहनाई जा सकें। पियूष की किताबें उसके बैग में थीं, जो हादसे में फटी हालत में सड़क पर मिलीं। उसकी मां ने कहा, “कल परीक्षा थी… उसने सुबह उठकर पढ़ाई की थी… अब सब खत्म।” चार अन्य घायल सुरेंद्र चतरकर, रविंद्र चतरकर, रूपचंद वाकोडे और प्रमिलाबाई वाकोडे इस समय अकोला के सरकारी अस्पताल में उपचाराधीन हैं।
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डॉक्टरों के मुताबिक उनकी हालत स्थिर है, लेकिन परिवार की मानसिक स्थिति बेहद खराब है। वे सभी लगातार यही सवाल कर रहे हैं: “क्यों नहीं रोकी गई वो रफ्तार?” हादसे के तुरंत बाद ट्रक चालक मौके से फरार हो गया। पुलिस ने उसके खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है, और खोजबीन शुरू की गई है। पर स्थानीय लोगों का गुस्सा शांत नहीं हो रहा। “क्या जांच से वापस आएंगे हमारे बच्चे?”, एक पिता की यह पुकार प्रशासन और व्यवस्था दोनों को झकझोरने के लिए काफी है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि यह सड़क हादसों के लिए कुख्यात है, लेकिन ना गति नियंत्रक संकेत लगे हैं, ना सीसीटीवी कैमरे। हर महीने यहाँ कोई न कोई लाश गिरती है, और फिर पुलिस एक रिपोर्ट बनाकर मामला ठंडे बस्ते में डाल देती है। इस बार फर्क बस इतना है कि जानें मासूमों की गई हैं। और आंखें पूरे गांव की नम हैं।
इस हादसे ने न सिर्फ दो मासूमों की जिंदगी छीन ली, बल्कि पूरे समाज से यह सवाल भी कर दिया है। क्या हमारे बच्चों की ज़िंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि तेज़ रफ्तार के नीचे कुचलकर खत्म हो जाए? पियूष और लिलाबाई अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी मौत एक चेतावनी है, एक चीख है। जो तब तक गूंजती रहेगी जब तक सड़कें इंसानों के लिए सुरक्षित नहीं बनतीं।