भारत का सर्वोच्च न्यायालय
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में नेत्रहीनों को न्यायिक सेवा में अवसर देने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियमों में मौजूद भेदभावपूर्ण प्रावधानों को निरस्त करते हुए शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि दिव्यांगता के आधार पर भेदभाव को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाना चाहिए।
अब नेत्रहीन भी बन सकेंगे जज
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि नेत्रहीनों को न्यायिक सेवा के लिए “अयोग्य” नहीं माना जा सकता। जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने यह निर्णय उन याचिकाओं पर सुनवाई के बाद सुनाया, जिनमें न्यायिक सेवाओं में नेत्रहीनों और कम दृष्टि वाले उम्मीदवारों को आरक्षण न देने पर सवाल उठाए गए थे। अदालत ने विशेष रूप से मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा नियमों के नियम 6A को असंवैधानिक करार दिया, क्योंकि इसमें नेत्रहीन उम्मीदवारों को आवेदन करने की अनुमति नहीं दी गई थी। साथ ही, नियम 7 के उस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया गया, जिसमें उम्मीदवारों के लिए अनिवार्य रूप से तीन साल की वकालत का अनुभव या पहली बार में 70% अंक लाने की शर्त रखी गई थी। अदालत ने इसे समानता के अधिकार और उचित अवसर सिद्धांत के खिलाफ माना।
समानता, समावेशन और विशेष कट-ऑफ की व्यवस्था
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकारों को सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ताकि दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए एक समावेशी चयन प्रक्रिया बनाई जा सके। अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि कठोर कट-ऑफ अंक या जटिल चयन प्रक्रियाएं दिव्यांग उम्मीदवारों के लिए अप्रत्यक्ष भेदभाव का कारण बन सकती हैं, जिन्हें हटाया जाना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण निर्देशों में से एक यह रहा कि अब नेत्रहीन उम्मीदवारों के लिए प्रत्येक चयन चरण में अलग कट-ऑफ निर्धारित किया जाएगा। इससे यह सुनिश्चित होगा कि उनकी योग्यता को उचित सहूलियतों के साथ आंका जाए, जिससे वे समान आधार पर प्रतियोगिता में शामिल हो सकें। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का हवाला देते हुए कहा कि समानता और समावेशन भारतीय न्याय प्रणाली की नींव हैं। यह फैसला दिव्यांग व्यक्तियों को सार्वजनिक सेवा में समान अवसर देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
देश की अन्य लेटेस्ट खबरों के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।
आगे और किस तरह के प्रावधान की संभावना
अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि न्यायिक अधिकारियों की भर्ती प्रक्रिया को तीन महीने के भीतर पूरा किया जाए और नेत्रहीन उम्मीदवारों को समान अवसर प्रदान किया जाए। फैसले में संविधान संशोधन का भी उल्लेख किया गया, जिसमें कमजोर वर्गों, विशेष रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात कही गई है।
यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका को और अधिक समावेशी बनाने की दिशा में एक बड़ा कदम है। इससे यह संदेश जाता है कि किसी भी व्यक्ति को उसकी दिव्यांगता के आधार पर सार्वजनिक सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता।