एक साथ चुनाव की प्रक्रिया आखिर जटिल क्यों (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: देश में लोकसभा और सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने को लेकर 129वें संविधान संशोधन विधेयक की जांच-पड़ताल करने के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति इस समय देश के विधि विशेषज्ञों से चर्चा कर उनकी राय जान रही है। सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त चीफ जस्टिस यू यू ललित ने समिति के सम्मुख मत व्यक्त किया कि 30 से 40 प्रतिशत कालावधि बाकी रहते यदि विधानसभा को विसर्जित कर एक साथ चुनाव कराने की बात हुई तो इससे संविधान के आधारभूत ढांचे को आघात पहुंचेगा तथा ऐसे कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
एक अन्य पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई ने कहा कि इस संविधान संशोधन बिल में कुछ कमियां हैं. चुनाव आयोग को विधानसभा की कालावधि कम या ज्यादा करने का अधिकार देना अनुचित होगा। दूसरी ओर केंद्रीय कानून मंत्रालय ने संयुक्त संसदीय समिति को बताया कि एक साथ चुनाव कराना लोकतंत्र विरोधी नहीं है और इससे संघ राज्य रचना को नुकसान नहीं पहुंचेगा। सरकार की दलील है कि बार-बार चुनाव कराने पर भारी खर्च होता है। आचार संहिता लागू होने से महत्वपूर्ण प्रशासकीय व विकास के काम ठप हो जाते हैं। सरकार ने अभी यह नहीं बताया है कि एक साथ चुनाव कराने से खर्च में कितनी बचत होगी।
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की उच्चाधिकार समिति ने कहा है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के बाद 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकायों के चुनाव करा लिए जाने चाहिए. मुद्दा यह है कि एक साथ चुनाव कराना कब संभव होगा? लोकसभा चुनाव के बाद नई लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति अधिसूचना जारी करते हैं कि इस सदन का कार्यकाल 5 वर्ष रहेगा. 2029 के लोकसभा चुनाव के बाद ऐसी अधिसूचना जारी होने पर सदन का कार्यकाल 2034 तक रहेगा इसलिए कम से कम 10 वर्षों तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की कोई संभावना नहीं है।
कभी मध्यावधि चुनाव की नौबत भी आती है. केंद्र और राज्यों में ऐसा होता रहा है। 2034 तक देश की कम से कम 26 विधानसभाओं में यदि सत्ताधारी दल को प्रचंड बहुमत मिला तो भी ये विधानसभाएं अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएंगी. इसलिए संविधान संशोधन के बाद विधानसभा चुनावों की संख्या बढ़ जाएगी. इसलिए चुनाव का खर्च भी बढ़ेगा। आचार संहिता की समयावधि भी बढ़ेगी।
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1967 के पहले तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुआ करते थे लेकिन बाद में त्रिशंकु विधानसभा व लोकसभा रहने से या अविश्वास प्रस्ताव मंजूर हो जाने से समय पूर्व चुनाव होने लगे और विधानसभाओं की समयावधि भी अलग-अलग वर्ष में पूरी होने लगी. इसलिए एक साथ चुनाव कराने का प्रश्न जटिल हो गया. ऐसा हो सकता है कि विधानसभा का चुनाव 5 वर्ष के लिए न कराते हुए सिर्फ शेष कार्यकाल के लिए कराया जाए और इस तरह एक साथ चुनाव की दिशा में आगे बढ़ा जाए।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा