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नवभारत डेस्क: भारत और चीन के बीच सीमावर्ती क्षेत्रों में एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर पेट्रोलिंग व्यवस्था संबंधी समझौता हो गया है। इससे न सिर्फ डिसइंगेजमेंट (सैनिकों का मोर्चे से बैरकों में लौटना) होगा बल्कि 2020 के सैन्य टकराव से जो मुद्दे उठे थे, उनका भी समाधान हो जायेगा। यह दोनों देशों के बीच स्थिति को सामान्य करने के संदर्भ में बहुत बड़ा कदम है, जिससे 54-माह से जो सैन्य गतिरोध इस क्षेत्र में बना हुआ था, वह भी समाप्त हो गया है।
यूक्रेन और मध्य एशिया में जो युद्ध चल रहे हैं उनके कारण संसार एक बार फिर से दो खेमों में विभाजित होता जा रहा है। एक तरफ अमेरिका और उसके यूरोपियन साथी हैं, जो यूक्रेन व इजराइल के समर्थन में खड़े हैं और दूसरी ओर रूस, चीन व ईरान का त्रिकोण है, जो पश्चिम का विरोध कर रहा है।
भारत इन दोनों खेमों के बीच फिलहाल पुल है, लेकिन दोनों ही खेमे उसे अपने अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि भारत का चीन से सीधा सीमा विवाद चल रहा था, इसलिए चीन ने सीमा विवाद को हल करके भारत को प्रलोभन अवश्य दिया है।
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सवाल यह है कि चीन पर कितना भरोसा किया जा सकता है? इतिहास बताता है कि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे लगाने वाला स्वार्थी चीन केवल अपने हित देखता है, इसलिए उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अतः भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि ब्रिक्स पश्चिम-विरोधी समूह बनकर न रह जाये।
भारत ने स्वतंत्र दृष्टिकोण रखने में संकोच नहीं किया है। रूस पर पश्चिम की पाबंदी के बावजूद वह रूस से सस्ता तेल लेता रहा और इस तरह दुनिया को बता दिया कि वह किसी एक खेमे का सदस्य नहीं है। दिल्ली के लिए जरूरी है कि वह चीन के साथ एलएसी समझौते को द्विपक्षीय मामला ही रखे, उसे अंतर्राष्ट्रीय खेमेबाजी की राजनीति का हिस्सा न बनने दे। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि इस ‘सकारात्मक’ समझौते से दोनों पक्ष 2020 की स्थिति में वापस पहुंच गए हैं और डिसइंगेजमेंट प्रक्रिया पूरी हो गई है।
उनके अनुसार अब भारतीय सैनिक उसी तरह से पेट्रोलिंग कर सकेंगे जैसा कि वह 2020 के गतिरोध से पहले किया करते थे। गौरतलब है कि एलएसी पर ‘पेट्रोलिंग व्यवस्था’ से टकराव के अन्य प्रमुख स्थानों जैसे डेपसांग व डेमचोक में भी डिसइंगेजमेंट होगा, जिसके जमीन पर ठोस आकार लेने में 7 से 10 दिन लग सकते हैं।
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पूर्वी लद्दाख में 2020 के घातक टकराव के बाद से दोनों पक्ष जबरदस्त सैन्य तैयारी में जुटे हुए थे, जैसे किसी भी पल जंग का बिगुल बज जायेगा। गतिरोध वाले क्षेत्रों में बफर जोन के बावजूद दोनों देशों ने अधिक फौज की तैनाती से किलेबंदी भी की हुई थी, जोकि निरंतर चिंता का विषय थी। यह समझौता ऐसे समय हुआ है, जब रूस में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में मोदी हिस्सा ले रहे हैं और जिनपिंग से उनकी द्विपक्षीय मुलाकात हो सकती है, इसलिए अंदाजा यही है कि अब दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर होने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
अब जो यह कदम आगे बढ़ा है, उस तक पहुंचने के लिए पिछले 53-माह में 20 चक्र से भी अधिक सैन्य वार्ताएं हुई हैं और इनके अतिरिक्त विदेश मामलों के अधिकारियों के बीच भी मल्टी-लेवल की अनेक बैठकें हुई हैं। सवाल यह कि आखिरकार यह गतिरोध टूटा कैसे? यह सही है कि बीजिंग आक्रमक जिद्दी प्रतिद्वंदी है, लेकिन इसमें भी शक नहीं है कि समझौता करने के लिए वह अपनी घरेलू चुनौतियों से प्रभावित हुआ है, विशेषकर धीमी होती अर्थव्यवस्था और अत्यधिक सैन्यीकृत सीमा को बरकरार रखने के खर्च से बीजिंग की निगाह इस बात पर भी लगी हुई थी कि दिल्ली के वाशिंगटन से स्ट्रेटेजिक व सैन्य संबंध गहरे होते जा रहे हैं और रक्षा व्यापार भी धीरे धीरे बढ़ता जा रहा है।
पश्चिम को चुनौती देने के लिए रूसी खेमे को भारत की जरूरत है, जिसके लिए आवश्यक था कि भारत व चीन के बीच सीमा विवाद का हल निकले और इन दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर हों।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा