श्रीमती के प्रचार में पतिदेव की प्रतिष्ठा दांव पर (सौजन्यः सोशल मीडिया)
Bhandara Women Workers: चुनाव कोई भी हो, लेकिन सबसे बड़ी जिज्ञासा यही होती है कि “उम्मीदवार कौन होगा?” इसलिए जैसे ही नगर परिषद अध्यक्ष पद का आरक्षण खुले वर्ग की महिलाओं के लिए घोषित हुआ, वैसे ही कई महिलाओं के नामों की चर्चा राजनीतिक गलियारों और सोशल मीडिया पर तेज़ हो गई। यह पद महिलाओं के लिए आरक्षित होने से वर्षों से पार्टी के लिए मेहनत करने वाली महिला कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों को उम्मीद जगी कि अब उन्हें भी अवसर मिलेगा। लेकिन अब कई राजनीतिक नेता अपनी ‘श्रीमती’ या परिवार की अन्य महिलाओं का चेहरा आगे कर रहे हैं, जिससे महिला कार्यकर्ताओं में नाराज़गी का माहौल बन गया है।
यहां तक कि यह चर्चा भी शुरू हो गई है कि “अगर पार्टी में उम्मीदवार के रूप में घर की महिलाओं को ही आगे लाना है, तो फिर पार्टी के काम के लिए बाकी महिला कार्यकर्ताओं को घर से बाहर क्यों निकाला जाता है? एक ओर जहां ‘श्रीमती’ के प्रचार के लिए पतिदेव की प्रतिष्ठा दांव पर लग रही है, वहीं दूसरी ओर पार्टी की समर्पित महिला कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ रहा है। तीन वर्षों की लंबी प्रतीक्षा, राजनीतिक उत्सुकता का उफान और नगरपालिका में चल रहे प्रशासनिक शासन के बाद अब अध्यक्ष पद का आरक्षण घोषित हुआ। घोषणा के साथ ही कई संभावित उम्मीदवारों के सपने बिखर गए। अनेक पुरुषों ने देव-पानी में रखे थे, लेकिन अब महिलाओं का वर्चस्व तय हो गया है।
भंडारा, पवनी और साकोली नगर परिषदों के अध्यक्ष पद खुले वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित होने से कई दिग्गज नेताओं के राजनीतिक समीकरण बिगड़ गए हैं। नगरपालिका चुनाव की तैयारी में पहले से सक्रिय रहे नेताओं ने सभाएं, कार्यक्रम और कार्यकर्ता संपर्क अभियान चलाए थे, लेकिन अब आरक्षण की इस घोषणा से कईयों को झटका लगा है और पार्टियों के समीकरण बदलने वाले हैं।
शहर में कई सक्षम, कार्यक्षम और लोकप्रिय महिलाएं सामने आने को उत्सुक हैं, कुछ अपनी मेहनत के बल पर तो कुछ अपने पति, देवर या पुत्र की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण। वहीं, कुछ अतिमहत्त्वाकांक्षी नेताओं ने “मैं नहीं, मेरी पत्नी” की रणनीति अपनाते हुए अपनी ‘श्रीमती’ को यह पद दिलाने के लिए जोड़-तोड़ शुरू कर दी है। फिलहाल भंडारा शहर में कई नेताओं की पत्नियों के नामों की चर्चा जोरों पर है।
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महिला कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर उम्मीदवार के रूप में घर की महिलाओं को ही आगे लाना है, तो पार्टी के कार्यक्रमों और आंदोलनों में ये घर की महिलाएं कहां होती हैं? ऐसी फुसफुसाहट अब हर राजनीतिक गली में सुनाई दे रही है। चर्चा में शामिल कई महिलाओं का न तो राजनीतिक अनुभव है, न सामाजिक कार्यों में कोई विशेष सहभागिता। लेकिन जैसे बरसात में छतरियां अचानक खुल जाती हैं, वैसे ही चुनाव के मौसम में ये महिलाएं अचानक ‘उम्मीदवार’ बन जाती हैं या यूं कहें कि उनके पतिदेव उन्हें खड़ा करते हैं।
इस बीच, आरक्षण घोषित होते ही राजनीतिक माहौल गर्म हो गया है। कईयों ने अपनी-अपनी योजनाएं बनाना शुरू कर दी है। इस पद पर कोई भी आरक्षण नहीं होने से राजनीतिक गणित निश्चित रूप से बदलने वाला है।