
त्रिपुरा का नीरमहल- इनसेट में एंजेल चकमा (सोर्स- सोशल मीडिया)
Angel Chakma Murder: देवभूमि की संज्ञा से विभूषित उत्तराखंड में राक्षसी कृत्य को अंजाम दिया गया। सूबे की राजधानी देहरादून में त्रिपुरा के रहने वाले छात्र एंजेल चकमा को कुछ लोगों ने बेरहमी से पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। बताया जा रहा है कि विवाद की शुरुआत किसी छोटी बात से हुई थी, लेकिन आरोपियों ने जल्द ही नस्लीय और अपमानजनक टिप्पणियां शुरू कर दीं। भारतीय राज्य त्रिपुरा के छात्र एंजेल चकमा को ‘चाइनीज’ और ‘मोमो’ जैसे शब्दों से संबोधित कर सरेआम उसकी अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया गया।
एंजेल चकमा अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी मौत ने पूरे देश के सामने कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं। वो सवाल ये हैं कि क्या एंजेल चकमा को ‘चीनी’ कहने वाले लोग त्रिपुरा के इतिहास से अनजान थे, अथवा उनके उपर नफरती सोच इतनी हावी हो चुकी है कि देश के अंग को ही अपमानित समझने लगे हैं। ऐसा क्या है कि पूर्वोत्तर राज्यों के योगदान को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है।
नॉर्थ-ईस्ट के साथ दुर्व्यवहार की यह कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं सामने आ चुका हैं। देश में सरकार बदली पूर्वोत्तर को लेकर तमाम दावे किए गए, लेकिन कुछ नहीं बदला। बस जगह बदलती रहती है, राज्य बदल जाते हैं, लेकिन नफरती सोच पीछा नहीं छोड़ती। लेकिन ऐसी सोच रखने वालों को एक बार त्रिपुरा का गौरवशाली इतिहास जरूर पढ़ना चाहिए।
माणिक्य वंश के राजाओं ने अंग्रेजों के साथ औपचारिक संबंध बनाए रखे, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने देश के प्रति अपनी वफादारी नहीं छोड़ी। उन्होंने एक नाजुक संतुलन बनाए रखा, यह सुनिश्चित करते हुए कि अंग्रेज नाराज न हों और साथ ही त्रिपुरा के लोगों को धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना अपनाने की अनुमति दी। 20वीं सदी की शुरुआत में महाराजा बीर चंद्र माणिक्य ने शिक्षा, प्रशासन और बुनियादी ढांचे में महत्वपूर्ण सुधार शुरू किए। इससे त्रिपुरा में शिक्षित युवाओं की एक नई पीढ़ी का उदय हुआ, जिन्होंने बाद में स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
महाराजा बीर विक्रम सिंह व नीरमहल (सोर्स- सोशल मीडिया)
उनके उत्तराधिकारी महाराजा राधाकिशोर माणिक्य और फिर महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य ने इन सुधारों को जारी रखा। बीर बिक्रम किशोर माणिक्य के शासनकाल के दौरान त्रिपुरा ने अपने समय से काफी पहले आधुनिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। उनके शासनकाल में कई स्कूल और शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए गए जिससे युवाओं में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी। उन्होंने अंग्रेजों के साथ संबंध बनाए रखे और साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं के संपर्क में भी रहे। यही कारण है कि त्रिपुरा में स्वतंत्रता का विचार जड़ पकड़ गया।
त्रिपुरा का भौगोलिक स्थान भी महत्वपूर्ण था। इसकी सीमाएं पश्चिम बंगाल और असम से लगती थीं। इससे बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारी संगठनों, जैसे अनुशीलन समिति और युगांतर, का प्रभाव त्रिपुरा तक पहुंच सका। इन संगठनों ने त्रिपुरा के आम लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल किया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज की विचारधारा भी त्रिपुरा में गहराई से गूंजी।
अक्सर यह गलत धारणा होती है कि पूर्वोत्तर राज्य होने के कारण त्रिपुरा ने स्वतंत्रता संग्राम में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई। हालांकि, सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। त्रिपुरा के लोगों ने स्वदेशी आंदोलन (1905-1911), असहयोग आंदोलन (1920-1922), सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में सक्रिय रूप से भाग लिया। पश्चिम बंगाल से निकटता के कारण त्रिपुरा में स्वदेशी आंदोलन का प्रभाव विशेष रूप से मजबूत था। असहयोग आंदोलन के दौरान त्रिपुरा के कई युवाओं ने ब्रिटिश-संचालित शैक्षणिक संस्थानों को छोड़ दिया और स्वराज (स्व-शासन) के संघर्ष में शामिल हो गए।
त्रिपुरा के आदिवासी भी असली नायक के तौर पर सामने आए। त्रिपुरा अन्य राज्यों से अलग था क्योंकि स्वतंत्रता की पुकार शहरों से नहीं, बल्कि गांवों से उठी थी। यहां आंदोलन का नेतृत्व काफी हद तक आदिवासी समुदाय ने किया। ब्रिटिश नीतियों के कारण आदिवासी भूमि जब्त की जा रही थी और शोषण बढ़ रहा था। इसी वजह से आदिवासी समुदाय अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हुआ।
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इस संघर्ष में आदिवासी नेता दशरथ देब का योगदान बहुत अहम था। उन्होंने अलग-अलग आदिवासी संगठनों को एकजुट किया, लोगों को शिक्षा के महत्व के बारे में बताया और उनमें राजनीतिक जागरूकता बढ़ाई। बाद में वे त्रिपुरा के मुख्यमंत्री भी बने। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आदिवासी समुदाय मार्च और विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे था। दशरथ देब के अलावा बीरेंद्र किशोर, बीर बिक्रम किशोर माणिक्य और सचिंद्र लाल सिंह जैसे नेताओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारत की आजादी के बाद त्रिपुरा के पास पाकिस्तान में शामिल होने या भारत में विलय होने का विकल्प था। महाराजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य की पत्नी महारानी कंचन प्रभा देवी ने भारत में शामिल होने का ऐतिहासिक फैसला लिया। 15 अक्टूबर 1949 को त्रिपुरा ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए और भारतीय संघ का हिस्सा बन गया। जिसके बाद साल 1972 में त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।






