निकाय चुनाव में राम शिंदे बनाम रोहित पवार की सीधी टक्कर। (सौजन्यः सोशल मीडिया)
अहिल्यानगर: जिला परिषद और पंचायत समिति चुनाव की तैयारियों के बीच जामखेड तालुका एक बार फिर राजनीतिक संघर्ष का केंद्र बनने जा रहा है। मुकाबला केवल सीटों का नहीं, बल्कि सत्ता की पकड़ और राजनीतिक प्रभाव की गहराई नापने का है। एक ओर राज्य की सत्ताधारी महायुति गठबंधन के प्रतिनिधि और वर्तमान जिला परिषद सभापति प्रो. राम शिंदे हैं, तो दूसरी ओर युवा नेतृत्व और लोकप्रिय चेहरा विधायक रोहित पवार, जो महा विकास आघाड़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इस बार लड़ाई जितनी मतदान केंद्रों पर दिखेगी, उससे कहीं अधिक गुट-वार्ड रचना की नीति और राजनीतिक चालबाज़ी में नजर आएगी।
राज्य सरकार ने हाल ही में सभी जिला परिषदों और पंचायत समितियों के गुटों की संख्या घोषित की है। हैरानी की बात यह है कि यह वही संख्या है, जो वर्ष 2022 में तत्कालीन महा विकास आघाड़ी सरकार द्वारा तय की गई थी। अब उसी के आधार पर नए सिरे से गुट-वार्ड पुनर्रचना की जाएगी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महायुति सरकार ने पूर्ववर्ती आघाड़ी सरकार के गुट निर्धारण को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन अब असली लड़ाई इस बात की है कि किस तरह गांवों को जोड़ा या हटाया जाए, ताकि राजनीतिक समीकरण अपने पक्ष में किए जा सकें।
2015 से पहले जामखेड, जवला और खर्डा यह तीन गुट हुआ करते थे। बाद में जामखेड को नगर परिषद का दर्जा मिलते ही वह हिस्सा जिला परिषद क्षेत्र से बाहर हो गया, और केवल दो गुट ही शेष रह गए। वर्ष 2022 में महा विकास आघाड़ी सरकार द्वारा तीसरे गुट को पुनः शामिल करने की कोशिश हुई थी, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई। अब एक बार फिर तीसरे गुट की औपचारिक घोषणा हो चुकी है, जिससे स्थानीय नेताओं और इच्छुकों में संतोष की लहर है। यह नया गुट कई राजनीतिक समीकरणों को पलट सकता है।
कोरोना महामारी और ओबीसी आरक्षण को लेकर उपजे विवादों के चलते राज्य में चार वर्षों तक स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के चुनाव स्थगित रहे। इस अवधि में राज्य की सियासत में बड़ा उलटफेर हुआ जिससे अब गुट-वार्ड रचना पर सत्ता का सीधा प्रभाव दिख रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चार माह के भीतर चुनाव कराने के आदेश दिए, जिसके बाद राज्य प्रशासन ने तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। हालांकि चुनाव 2011 की जनगणना के आधार पर ही कराए जा रहे हैं, जबकि बीते 14 वर्षों में जनसंख्या में तेज़ वृद्धि हुई है। नई जनगणना न होने से यह चुनाव पुराने आंकड़ों पर आधारित होंगे।
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अब गुट और वार्डों का निर्धारण केवल प्रशासनिक काम नहीं रहा, बल्कि यह पूरी तरह एक राजनीतिक कवायद बन चुका है। जिन क्षेत्रों में किसी पार्टी विशेष का प्रभाव अधिक है, वहां उसी के अनुसार गांवों का समायोजन किया जा रहा है। गांवों को जोड़ना या हटाना अब केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक लाभ और वोट बैंक के हिसाब से किया जा रहा है। यही वजह है कि हर छोटे बदलाव पर राजनीतिक इच्छुकों की पैनी नजर बनी हुई है।
पिछली विधानसभा चुनाव में रोहित पवार ने प्रो. राम शिंदे को मात्र 1243 मतों से पराजित किया था। हालांकि यह हार बहुत कम अंतर की थी, लेकिन इसके बाद जब सत्ता महायुति के हाथ में आई, तो प्रो. शिंदे को जिला परिषद का सभापति पद सौंपा गया, जिससे उनका राजनीतिक वज़न फिर से बढ़ गया। अब जब चुनाव करीब हैं, यह मुकाबला सिर्फ कार्यकर्ताओं का नहीं, बल्कि दो प्रमुख नेताओं की प्रतिष्ठा की सीधी लड़ाई बन चुका है। एक ओर सत्ता और संगठन का समर्थन प्राप्त शिंदे हैं, तो दूसरी ओर युवाओं में लोकप्रिय और जमीनी नेता रोहित पवार हैं।
यह चुनाव निश्चित रूप से जामखेड की राजनीतिक दिशा और दोनों नेताओं के भविष्य को तय करने वाला साबित हो सकता है। जामखेड का यह जिला परिषद चुनाव केवल एक स्थानीय चुनाव नहीं, बल्कि राजनीतिक समीकरणों, संगठनात्मक शक्ति और रणनीतिक निर्णयों का इम्तिहान है। गुट-वार्ड रचना से लेकर वोटिंग पैटर्न तक, हर बिंदु अब सत्ता की बिसात पर रखा जा चुका है और इस बार मुकाबला सच में ‘सीधा और तीखा’ है।