ममता बनर्जी, तेजस्वी यादव और एमके स्टालिन ने कानून को अपने-अपने राज्यों में लागू न करने की बात की (कॉन्सेप्ट फोटो)
नई दिल्ली: वक्फ संशोधन कानून 2025 को लेकर राजनीतिक बयानबाजियां लगातार तेज है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बिहार के तेजस्वी यादव और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कानून को अपने-अपने राज्यों में लागू न करने की बात कही थी। लेकिन क्या किसी राज्य की सरकार केंद्र द्वारा पारित और राष्ट्रपति की मंजूरी से लागू हुए कानून को रोक सकती है? यह सवाल सभी के लिए चर्चा का विषय है। संविधान क्या कहता है और राज्य सरकारों की संवैधानिक सीमाएं क्या हैं, यही इस बहस की असल जड़ है।
कानून को लेकर राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित करना केवल एक प्रतीकात्मक कदम होता है, जिसका कोई कानूनी प्रभाव नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट पहले भी इस पर स्पष्ट कर चुका है कि किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित प्रस्ताव केवल उस विधानसभा की राय होती है, न कि कोई बाध्यकारी आदेश। कानून के लागू होने या रद्द होने का निर्णय केवल संसद या सुप्रीम कोर्ट ही कर सकती है। ऐसे में राज्यों की असहमति केवल राजनीतिक अभिव्यक्ति मानी जाएगी। इस तरह के विधेयकों को विधानसभा में पारित करवाना भी एक राजनीतिक उद्देश्य ही होता है।
राज्य और केंद्र के बीच संवैधानिक संतुलन
भारत के संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार कानून बनाने की शक्तियां केंद्र और राज्य में बंटी हुई हैं। वक्फ जैसे मुद्दे समवर्ती सूची में आते हैं, जिस पर दोनों सरकारें कानून बना सकती हैं। लेकिन अगर इस सूची के विषय पर राज्य और केंद्र के कानून में टकराव हो जाए, तो संविधान का अनुच्छेद 254 साफ करता है कि उस स्थिति में केंद्र का कानून ही मान्य होगा।
राज्य की सीमाएं और असहयोग की नीति
चूंकि वक्फ संशोधन कानून संसद द्वारा पारित और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद लागू हो चुका है, इसलिए कोई भी राज्य इसे रोक नहीं सकता। हालांकि राज्य सरकारें व्यवहारिक रूप से इसे लागू करने में असहयोग कर सकती हैं। वे प्रशासनिक अमला तैनात न कर, कार्यालय न बनाकर या वक्फ बोर्ड का पुनर्गठन न कर इसके प्रभाव को सीमित करने की कोशिश कर सकती हैं। लेकिन यह नीति संवैधानिक भावना के विरुद्ध मानी जा सकती है।
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राजनीतिक विरोध बनाम कानूनी बाध्यता
राज्य सरकारों द्वारा कानून के खिलाफ प्रस्ताव पारित करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। इससे वे अपनी असहमति दर्ज कराते हैं, लेकिन इसका कोई कानूनी असर नहीं होता। जब तक सुप्रीम कोर्ट इस कानून को रद्द नहीं करता, तब तक यह पूरे देश में लागू रहेगा और राज्यों को इसे मानना ही होगा। ऐसे में विरोध की राजनीति एक प्रतीक बनकर रह जाती है।