क्रांतिकारियों की याद में बनाया गया स्मारक (फोटो-सोशल मीडिया)
Independence Day 2025: साल 1914, कलकत्ता की गर्म और उमस भरी दोपहर में, कुछ अंग्रेज अफसर एक गोदाम में सामान की गिनती कर रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे गिनती आगे बढ़ रही थी। अंग्रेज अफसरों के चेहरे पर डर नजर आ रहा था। जिस सामान की गिनती वो कर रहे थे उनमें से कुछ सामान गायब थे, जो कहां गए किसी को नहीं पता। जैसे ही ये बात उस गोदाम की चार दीवारी से बाहर आई पूरे कलकत्ता में हड़कंप मच गया। क्योंकि गायब हुआ सामान बंदूकें, गोलियां, माउजर और पिस्तौले थी। हालांकि सबसे बड़ा सवाल था कि किसकी इतनी हिम्मत हुई कि उनसे अंग्रेज बहादुर के घर में डाका डाला?
1857 के विद्रोह के बाद से ही भारत में आजादी की चिंगारी धधक रही थी। जगह-जगह क्रांतिकारी संगठन बन चुके थे, जिनमें सबसे खतरनाक और संगठित नाम था अनुशीलन समिति। इसके सदस्यों का मानना था कि केवल हथियारों के बल पर ही अंग्रेजी राज को हराया जा सकता है।
1908 में अंग्रेजों ने दो युवाओं प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को एक अंग्रेज जज की हत्या की कोशिश के आरोप में फांसी दे दी। यह घटना बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए चेतावनी भी थी और चुनौती भी। अब बदला लेना जरूरी था, लेकिन इसके लिए चाहिए थे हथियार। समिति के पास कुछ बंदूकें पहले से थीं, जिन्हें वे अमीर घरों को लूटकर खरीदते थे। परंतु ये पर्याप्त नहीं थीं। उन्हें एक बार में बड़े पैमाने पर हथियार चाहिए थे।
समिति ने योजना बनाई कि अंग्रेजों के लिए जर्मनी से हथियार मंगवाने वाली Rodd & Company को लूटा जाए। सौभाग्य से, इस कंपनी में काम करने वाले कालिदास मुखर्जी का क्रांतिकारियों से संपर्क था। उन्होंने समिति के सदस्य श्रीश चंद्र मित्रा को कंपनी में नौकरी दिला दी। मित्रा ने पूरी लगन से काम किया और कुछ ही महीनों में हथियारों की ढुलाई की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी गई। अब उन्हें हर खेप के आने-जाने की पूरी जानकारी मिल जाती थी।
अनुशीलन समिति के सदस्य (फोटो- सोशल मीडिया)
कुछ महीनों बाद, मित्रा को एक सुनहरा मौका मिला 26 अगस्त 1914 को कोलकाता पोर्ट पर जर्मन माउजर पिस्तौल और गोलियों का बड़ा जखीरा आने वाला था। योजना तुरंत बन गई गोदाम तक पहुंचने से पहले, रास्ते में ही हथियार लूट लिए जाएंगे।
लूट से एक दिन पहले, लालबाजार के पास चाटवाला गली में बैठक हुई। योजना थी कि असली खेप ढोने वाली छह बैलगाड़ियों के बीच एक सातवीं बैलगाड़ी घुसा दी जाएगी और हथियार लूट लिए जाएंगे। हरिदास दत्ता, जो देहाती मजदूर का भेष धरेंगे। उनके साथ कुछ और क्रांतिकारी मजदूर बनकर बैठेंगे। सुरक्षा के लिए, डलहौजी स्क्वायर पर कुछ साथी तैनात रहेंगे, जो किसी गड़बड़ी पर गाना गाकर संकेत देंगे।
26 अगस्त 1914 की सुबह, सबने आखिरी बार योजना दोहराई। मित्रा कंपनी के गोदाम पहुंचे और छह बैलगाड़ियां लेकर निकले। रास्ते में हरिदास सातवीं बैलगाड़ी के साथ आ मिले। शक न हो, इसलिए मित्रा ने सबके सामने हरिदास को देर से आने के लिए डांटा भी।
पोर्ट पर कुल 202 बक्सों में हथियार उतारे गए। इनमें से 192 बक्सों को छह बैलगाड़ियों पर लादा गया, जबकि बाकी के 10 बक्से हरिदास की गाड़ी में रखे गए। तय वक्त पर हरिदास अन्य गाड़ियों के पीछे-पीछे रवाना हुआ, लेकिन एक मोड़ पर उसने अपना रास्ता बदल लिया। वह कलकत्ता की संकरी गलियों से गुजरते हुए मलंग लेन स्थित कांति मुखर्जी के स्टॉक यार्ड पहुँचा। वहां बक्सों को तेजी से उतारकर छिपा दिया गया।
अगली सुबह सभी क्रांतिकारी भुजंग भूषण धर के घर इकट्ठा हुए, ताकि वहां से हथियार देशभर में भेजे जा सकें। भागने के लिए एक कार का इंतज़ाम था, लेकिन वह समय पर नहीं पहुंची। मजबूरी में, उन्होंने दो बग्गियां किराए पर लीं और यही निर्णय उनकी सबसे बड़ी चूक बन गया। इस बीच, हरीदास दत्ता और श्रीश चंद्र मित्रा हथियारों को सुरक्षित ठिकाने लगाकर रंगपुर निकल गए।
डलहौजी स्क्वायर (फोटो- सोशल मीडिया)
तीन दिन बाद जब इन्वेंट्री की गई, तो पूरे कलकत्ता में हड़कंप मच गया। पुलिस ने तुरंत शहर के कोने-कोने में अपने सिपाही तैनात कर दिए। उस दौर के अखबारों ने इस घटना को “The Greatest Daylight Robbery” यानी “सबसे बड़ी दिन-दहाड़े डकैती” करार दिया। जांच की शुरुआत कांति मुखर्जी के स्टॉक यार्ड से हुई, लेकिन वहां कुछ भी हाथ नहीं लगा। इसके बाद पुलिस ने बग्गी चालकों से पूछताछ शुरू की। एक बग्गी चालक ने बताया कि उसे कुछ बक्से ढोने के लिए आठ आने दिए गए थे। जो उस समय के हिसाब से बड़ी रकम थी। इसी सुराग के आधार पर पुलिस भुजंग भूषण धर के घर तक पहुंच गई। आने वाले समय में अंग्रेजों ने सभी क्रांतिकारी को पकड़ लिया।
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अंग्रेजों ने समय के साथ सभी क्रांतिकारियों को पकड़ तो लिया, लेकिन चोरी हुए हथियारों को कभी भी बरामद नहीं कर पाए। आने वाले समय में इनका उपयोग कई अहम लड़ाईयों में किया गया। 1925 के काकोरी कांड और 1930 के चटगांव शस्त्रागार विद्रोह में हुआ। इन्ही हथियारों के उपयोग किया गया था। इसके अलावा कहा जाता है कि 1929 में जब भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली बम फेंका था, तब उनके पास भी इसी लूट में लूटी गई माउजर थी।