
कॉन्सेप्ट फोटो (डिजाइन)
The Mokama Story: बिहार का फतुहा से लेकर लखीसराय तक का इलाका ‘टाल’ क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। टाल के इस इलाके को कभी दलहन की फसलों के लिए जाना जाता था। बिहार में इसे लोग दाल का कटोरा भी कहते थे। यहां पर उपजने वाली दाल बांग्लादेश तक भेजी जाती थी। बिहार की मोकामा विधानसभा इसी टाल क्षेत्र में आती है।
1980 के दशक तक कारखानों के धुएं से यह क्षेत्र महका करता था। यहां कभी मशहूर शिकारी और प्रकृति प्रेमी जिम कॉर्बेट की साल 1893 मे ट्रांस शिपमेंट इंस्पेक्टर के तौर पर नियुक्ति हुई थी। अपनी खास भौगोलिक स्थिति के चलते ये इलाका अंतर्देशीय नौवाहन और रेलवे का बड़ा केंद्र हुआ करता था।
साल 1990 के बाद एक तरफ यहां के कारखानों से धुंआ निकलना बंद हुआ तो दूसरी तरफ टाल की जमीन से दलहन की फसल उपजनी बंद हो गई। अब तो यहां के लोगों को बारूद की गंध के साथ जीने की आदत हो गई है। ताजा हालात भी ऐसे हैं जिससे सुधार की उम्मीद बेईमानी लगती है।
बाटा के प्लांट में काम करने वाले मजदूरों के अनुसार, 10 वर्ष पहले मोकामा बाटा प्लांट बंद हो गया। लेकिन, जब यह प्लांट चलता था तो सुबह 5:00 बजे मोकामा कि सड़कें मेले में तब्दील हो जाया करती थी। छुट्टी के समय तकरीबन 1,000 मजदूर यहां से एक बार में निकला करते थे। इन मजदूरों पर 5,000 परिवार आश्रित हुआ करते थे।
गंगा किनारे बने इस प्लांट में जहाज से रॉ मैटेरियल आया करता था। उससे चमड़ा तैयार कर देश के बाटा प्लांटों के साथ-साथ विदेशों में भी भेजा जाता था। बाटा के साथ ही यहां आज़ादी के बाद कई और बड़ी फैक्ट्रियां भी लगाई गईं।
यूनाइटेड स्प्रिट (मैकडॉवेल), नेशनल टेक्सटाइल कॉरपोरेशन, भारत वैगन एंड इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड जैसी फैक्ट्री से यहां धुआं निकला करता था। कारखानों में बजने वाली सीटी से लोगों की नींद खुला करती थी। लेकिन ये सब धीरे-धीरे बंद होती गईं और इस पूरे इलाके की पहचान सिर्फ़ बाहुबलियों और बारूद से होने लगी।
अब मोकामा का नाम सुनते ही दिमाग में गोलियों की आवाज़, सियासी गुटबाजी और बाहुबलियों की ठसक आंखों के समने घूमने लगती है। कभी उद्योग नगरी रही मोकामा की ज़मीन अब गैंगवार की गवाही देती है। अनंत सिंह, सूरजभान, सोनू-मोनू और टाल का गुट- ये भले ही चार नाम हों, लेकिन इनका नाम सुनते ही शरीर कांप जाता है।
फिल्म शोले का वह डॉयलाग याद आता जिसमें मां कहती है बेटा सो जाओं नहीं तो गब्बर आ जायेगा। लेकिन, यह क्षेत्र उससे भी ज्यादा खतरनाक है। यहां तो बात बात पर बुलेटों की भाषा बोली जाती है। 1980 के दशक के बाद यहां का इतिहास सिर्फ तारीखों से नहीं, खून की धारों से लिखा गया।
सत्ता की कुर्सी से लेकर जमीन के विवाद तक की हर लड़ाई बंदूक से ही लड़ी गई। 30 अक्टूबर को दुलारचंद की हत्या भी सत्ता की कुर्सी के लिए ही की गई। उनकी हत्या का आरोप जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के प्रत्याशी बाहुबली अनंत सिंह के ऊपर लगा है। लेकिन, उन्होंने इस हत्या का आरोप अपने विरोधी बाहुबली सूरजभान सिंह पर लगाया।
1980 के बाद से मोकामा में गैंगवार की जड़ें जमने लगीं थीं। माफिया डॉन अनंत सिंह और विवेका पहलवान के बीच खूनी रंजिश इसकी बानगी है। इसके बाद जो गोली और बारूद का सिलसिला शुरू हुआ वह अभी तक जारी है। 1990 के बाद तो यह क्षेत्र हत्या और अपहरण का केंद्र बन गया।
टाल की वह जमीन जहां कभी दलहन की खेती हुआ करती थी उसी जमीन से छोटे-छोटे बच्चों का नरकंकाल निकलने लगा। यूनाइटेड स्प्रिट (मैकडॉवेल), नेशनल टेक्सटाइल कॉरपोरेशन,भारत वैगन एंड इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड जैसी फैक्ट्री की जगह अपहरण उद्योग स्थापित हो गया। इसमें अनंत सिंह, सूरजभान के ही नहीं दुलारचंद यादव के भी नाम शामिल हैं।
कहा जाता है कि अपहरण की राशि नहीं देने पर उनकी हत्या कर के टाल में ही गाड़ दिया जाता था। जिसने इसमें जितनी ज्यादा ख्याति प्राप्त की उसकी गाड़ी में उतनी बड़ी लाल बत्ती लगी। फिर क्या था इसको देखकर तो गली गली में एक गैंग तैयार हो गया और बच्चा गैंगस्टर बनने का सपना देखने लगा।
मोकामा के लदमा गांव में 1961 में जन्मे अनंत सिंह की 64 वर्षीय अनंत सिंह ने नौ वर्ष की उम्र में पहली हत्या किया था। इसके बाद तो उकी पहचान उनकी गरीबी से नहीं, बल्कि गोली से होने लगी। भूमिहार समाज से आने वाले अनंत 1990 के दशक में राजनीति की सीढ़ी पर चढ़े और विधायक बन गए। कभी जेडीयू तो कभी आरजेडी।
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इन दोनों ने टिकट नहीं दिया तो निर्दलीय ही चुनाव मैदान में उतर गए। लेकिन, इसके बाद मोकामा की राजनीति के केंद्र में वे ही रहे। लेकिन पहचान हमेशा एक ही रही डॉन की। अपहरण और रंगदारी जैसे 30 से ज्यादा केस दर्ज रहे। 2019 में उनके घर से AK-47 बरामद होने पर उन्हें 10 साल की सजा हुई। बावजूद जेल से 2024 में वे बरी हो गए।






