आपदा से पहले ही अलर्ट करेगी ये तकनीक (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: कुदरत के इस कहर के आगे क्या सभी बेबस हैं और बचाव में कुछ किया ही नहीं जा सकता? क्या इसलिए हम केवल आपदा के बाद राहत बांटने तक सीमित रहेंगे? सच यह है कि विज्ञान और नव्यतम तकनीक के पास इसके नुकसान को न्यून करने, भविष्य सुरक्षित करने का रास्ता है और यही एकमात्र मार्ग है। मानसून में पहाड़ी राज्यों से बादल फटने की खबरें आम हैं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में ये घटनाएं लगभग हर मानसून में नियमित हैं।अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड भी अक्सर इससे बुरी तरह प्रभावित होते हैं। पाकिस्तान, नेपाल, चीन, अफगानिस्तान और जापान में भी अक्सर ऐसी घटनाएं होती रहती हैं, पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवां राज्य का बुनेर जिला ऐसी घटनाओं से परेशान है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, पिछले एक दशक में केवल उत्तराखंड और हिमाचल में ही 150 से अधिक बादल फटने की बड़ी विनाशक घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं। इनमें कभी पूरी बिजली परियोजना बह गई तो कभी सैकड़ों घर, समूचे गांव, होटल, सड़कें, पुल-पुलिया, पेड़ और सैकड़ों लोग भी इस संदर्भ में भविष्य और भयावह दिखता है। बादल फटना अत्यंत आकस्मिक घटना है, जिस पर किसी का वश नहीं, दूसरे छोटे भौगोलिक क्षेत्र में मौसम का सटीक पूर्वानुमान कठिन है।
विज्ञान और तकनीक की मदद तथा सरकार और जन-प्रयासों से क्षति को अत्यधिक न्यून तो अवश्य किया जा सकता है। रडार प्रणाली, सूचना-संचार प्रौद्योगिकी, उपग्रह, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, विभिन्न प्रकार के सेंसर, सैटेलाइट इमेजिंग और क्लाउड कंप्यूटिंग जैसी तकनीक इस क्षेत्र में तबाही से बचाव की मजबूत ढाल बन सकती हैं। लगभग 70 प्रतिशत बादल फटने की घटनाएं समुद्र तल से 1000-2000 मीटर ऊंचाई वाले इलाकों में होती हैं।
ड्रोन के जरिये जीआईएस मैपिंग करवा करके मानसून से पहले ही खतरे वाले गांवों को चिह्नित किया जा सकता है। इन्हीं से संवेदनशील ढलानों और नदियों के किनारों की बसाहट, मोड़ और अवरोध का नक्शा तैयार किया जा सकता है, जिससे फ्लैश फ्लड आने से पहले समस्या का समाधान तलाशा जा सके। ऐसे सामुदायिक रेडियो और मोबाइल ऐप विकसित किए जाएं, जो स्थानीय बोली-भाषा में चेतावनी प्रसारित करें। भारत के पास मौसम विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त आधारभूत ढांचा और तकनीक है37 डॉप्लर रडार हैं, बादलों की गति और नमी का रियल-टाइम डेटा देने के लिए इसरो के उपग्रह हैं।2 से 6 घंटे पहले ‘नाउकास्टिंग’ के जरिये अप्रत्याशित भारी वर्षा की चेतावनी दी जा सकती है।मोबाइल, रेडियो, टीवी और इंटरनेट के जरिए सूचना प्रसारण की व्यवस्था भी है।
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आधुनिक रडार और सैटेलाइट तकनीक की मदद से एक-दो घंटे पहले इसकी आशंका का भान हो सकता है। हमारे पास उन्नत डॉप्लर वेदर रडार और इसरो के कई मौसम उपग्रह मौजूद हैं, जो भारी वर्षा और बादल बनने की स्थिति का पता लगाने में सक्षम हैं। इनके उच्च-रिजॉल्यूशन इमेजरी से छोटे पैमाने पर बादलों की गतिविधि पर नजर रखते हैंकिस क्षेत्र में बादल फटने की आशंका है, इसका अनुमान लगाते हैं और इन सबके विवेचन से कुछ घंटे पहले ही खतरे की चेतावनी देकर लोगों को आपदा स्थल से सुरक्षित निकाला जा सकता है। भारी वर्षा के पैटर्न, नमी और तापमान के रीयल-टाइम डेटा को एआई आधारित मॉडल सटीकता से मिनट-दर-मिनट दर्ज कर सकते हैंइन आंकड़ों के विश्लेषण से संभावित खतरे का तत्काल पता लगाया जा सकता है। क्लाउड कंप्यूटिंग आधारित डेटा प्रोसेसिंग से तुरंत निर्णय लेने में बड़ी मदद मिलती हैअगर आशंकाग्रस्त हिमालयी क्षेत्रों के गांव-गांव में स्वचालित रेन-गेज नेटवर्क स्थापित किए जाएं, जिनमें ऐसे सेंसर हों, जो वर्षा का डेटा तुरंत केंद्रीय सर्वर को भेजें, तो स्थानीय स्तर पर चेतावनी जारी करने की क्षमता बढ़ेगी.
लेख- संजय श्रीवास्तव के द्वारा