
Premanand Ji Maharaj (Source. Pinterest)
Shri Premanand Ji Maharaj Satsang: भक्ति के मार्ग पर चलने वाला साधक केवल पूजा-पाठ से ही नहीं, बल्कि शुद्ध आचरण और पूर्ण समर्पण से ईश्वर तक पहुंचता है। श्री प्रेमानंद जी महाराज के सत्संग में बार-बार यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि अगर हृदय और दृष्टि शुद्ध नहीं है, तो वर्षों की तपस्या भी व्यर्थ हो सकती है। वृंदावन केवल एक स्थान नहीं, बल्कि एक भाव है, जहां पहुंचने के लिए बाहरी नहीं बल्कि भीतरी शुद्धता सबसे जरूरी है।
सत्संग में श्री प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि साधक का पहला धर्म है परधन और परस्त्री के भाव का त्याग। यदि कोई व्यक्ति छल, कपट या झूठे आध्यात्मिक वादों के सहारे किसी का धन लेता है, तो वह केवल पैसा नहीं, बल्कि अपनी पूरी पुण्य-पूंजी उस व्यक्ति को सौंप देता है। ईश्वर की व्यवस्था ऐसी है कि आपकी तपस्या और भक्ति का फल उसी को मिल जाता है, जिसके साथ आपने अन्याय किया है।
इसी प्रकार, किसी पर स्त्री को कामभाव से देखना चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी संचित पुण्य (सुकृत) का नाश कर देता है। शास्त्रों में यहां तक कहा गया है कि यदि पहली नजर अनजाने में पड़ जाए तो सावधान हो जाएं, लेकिन दूसरी बार वही दृष्टि पाप का कारण बनती है। मर्यादा की रक्षा के लिए स्वयं भगवान ने भी दृष्टि फेर लेने का आचरण दिखाया है।
साधना में बाधा केवल कर्मों से नहीं, बल्कि मन के दोषों से भी आती है।
श्री प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं कि साधक की वाणी मधुर और व्यवहार सौम्य होना चाहिए। कटु वचन, द्वेषपूर्ण व्यवहार और शत्रुता साधना को नष्ट कर देती है। यदि कोई आपके साथ कठोरता करे, तो उसे उसकी प्रकृति समझकर स्वीकार करें, लेकिन उसे अपने भीतर न आने दें। ऐसे लोग कभी शांत नहीं रह पाते, क्योंकि वे हमेशा भय और अशांति से घिरे रहते हैं।
संत परंपरा में एक बात स्पष्ट कही गई है ईश्वर की शरण के लिए लौकिक कर्तव्यों का त्याग भी धर्म बन जाता है। वृंदावन की शरण लेने से कोई परिवार से विमुख नहीं होता, बल्कि ऐसी भक्ति से इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है। गुरु या भगवान के निकट होना शरीर से नहीं, बल्कि आज्ञा पालन और हृदय में स्थान देने से होता है।
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यदि साधक लोभ, काम, द्वेष और असत्य का त्याग कर दे, तो प्रिय-प्रितम स्वयं उसे अपना लेते हैं। श्री राधा रानी की एक करुण दृष्टि लाखों मोक्ष से भी बड़ी है। भले ही इंद्रियां अभी पूरी तरह वश में न हों, लेकिन वृंदावन की शरण अंततः साधक को सत्संग, साधु संग और शाश्वत सेवा की ओर ले जाती है।
भक्ति को अमृत से भरे पात्र की तरह समझिए। हर बार जब आप लोभ, द्वेष या काम में पड़ते हैं, तो उस पात्र में छेद हो जाता है। ऊपर से कितना भी अमृत डालें, पात्र खाली ही रहेगा। आचरण की शुद्धता और समर्पण से ये छेद बंद होते हैं, तब हृदय में प्रेम का रस भरता है।






