गायगोधन (सौजन्य-नवभारत)
Yavatmal Latest News: कई दशकों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उतनी ही आस्था से निभाई जा रही है। इस दिन तहसील के विभिन्न गांवों से असंख्य नागरिक, गोपालक और ग्रामीण बड़ी संख्या में यहां उपस्थित होते हैं। हेमाडपंथी स्थापत्यकला की सुंदर रचना में बसे पांडवदेवी मंदिर के प्रांगण में सैकड़ों गोपालक अपनी गायों के साथ आकर उनकी पूजा करते हैं, गोधन का दर्शन करते हैं और आनंदपूर्वक उत्सव मनाते हैं।
ढोल-डफली की ताल पर गोपालक घंटों तक नृत्य करते रहते हैं, उनके चेहरों पर थकान का नामोनिशान नहीं दिखता—बल्कि आनंद, गर्व और भक्ति का तेज झलकता रहता है। यह पारंपरिक गोधन उत्सव केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि गांव-गांव के लोगों को जोड़ने वाला सामाजिक उत्सव भी है, जो गाय और गोसेवा को भारतीय संस्कृति के केंद्रबिंदु के रूप में जीवंत करता है।
इस दिन किसान भाई अपनी गायों को सजा-संवारकर, बाजे-गाजे के साथ यहां लाते हैं। मंदिर परिसर में पहुंचने पर गायों की विधिवत पूजा की जाती है, फिर उन्हें मंदिर की परिक्रमा कराई जाती है। इसके बाद वाद्य यंत्रों की ताल पर गायें नृत्य करती हैं। गुराखे (चरवाहे) के इशारे पर कई बार गायें मंदिर के सामने बैठ जाती हैं। यह मनमोहक दृश्य देखने के लिए तहसील ही नहीं, बल्कि पूरे जिले से लोग बड़ी संख्या में आते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास काल में कुछ समय के लिए इसी स्थान पर निवास किया था। युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपनी गायों को यहां विश्राम हेतु ठहराया था। तभी से इस स्थान पर गायगोधन यात्रा की परंपरा चली आ रही है। पांडवदेवी का यह परिसर हरियाली से भरा हुआ है। यहां के घने जंगलों में बड़ी-बड़ी हरित वृक्ष, झुंड और झाड़ियों का सौंदर्य मन को मोह लेता है। जंगल के बीच से बहने वाला एक बड़ा नाला कई महीनों तक निरंतर बहता रहता है, जिससे यह स्थल और भी नयनाभिराम दिखाई देता है।
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गोपालक अपनी सजी-धजी गायों के साथ भोर से ही पांढरदेवी में खड़े हो जाते हैं। कतार में दिवाली के दूसरे दिन मनाए जाने वाले गायगोधन उत्सव के लिए पांडवदेवी में सुबह से ही जबरदस्त उत्साह दिखाई देता है। भोर के पांच बजे से ही तहसील के अलग-अलग इलाकों के गोपालक अपनी सजी-संवरी गायों को लेकर यहां पहुंचते हैं।
गायों को हार-फूल, रंगीन कपड़े और चमकदार घंटियां पहनाई जाती हैं, और उन्हें चारपहिया वाहनों में लाया जाता है। रास्तों पर गाएं, ढोल-डफली की थाप और जय गोमाता के उद्घोष से वातावरण गूंज उठता है। हर गोपालक अपनी गाय को देवी मानकर उसकी आराधना करता है और उसकी पूजा के माध्यम से अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है। ऐसे इस पारंपरिक, आस्था और उल्लास से भरे वातावरण में पांढरदेवी का संपूर्ण परिसर भक्ति, रंग और उत्साह से आलोकित हो उठता है।