
कीर्तन से मन के विकारों का समापन
Yavatmal Bhakti Ras: अक्सर कहा जाता है कि जब मन के भीतर भगवान का प्राकट्य होता है, तो सभी दुष्प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं। लेकिन भगवान मन में प्रकट कैसे हों? इसका उत्तर हमारे संतों ने दिया है। संत तुकाराम महाराज कहते हैं।“कीर्तन चांग चांग होय, अंग हरी रूप”अर्थात कीर्तन से न केवल मन, बल्कि सम्पूर्ण शरीर हरिरूप बन जाता है। जहां हरि का वास होता है, वहां अनिष्ट, दुष्प्रवृत्ति और षड्विकार नहीं ठहरते। “अनिष्ट निवृत्ति और इष्ट प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन कीर्तन है,” ऐसा प्रतिपादन ह.भ.प. जगन्नाथ महाराज पाटिल (ठाणे) ने किया।
उन्होंने कहा कि जब उत्साह उत्सव का रूप ले लेता है, तो वह महोत्सव बन जाता है। महोत्सव ही ऐक्य का साधक, उत्साह का प्रेरक, प्रेम का पोषक, संस्कृति का संवर्धक और धर्म का संरक्षक होता है। कीर्तन महोत्सव पिछले डेढ़ दशक से समाज में यही कार्य कर रहा है। “नाचू कीर्तनाचे रंगी, ज्ञानदीप लावू जगी संत नामदेव महाराज का यह स्वप्न अब पूरी तरह साकार होता दिखाई दे रहा है, ऐसा पाटिल महाराज ने कहा। कीर्तन महोत्सव समिति द्वारा आयोजित 18वें कीर्तन महोत्सव में उन्होंने द्वितीय कीर्तन पुष्प के रूप में “घालीन लोटांगण वंदिन चरण…” इस दो-पंक्तियों वाले अभंग का सुंदर निरूपण किया।
कार्यक्रम में आगमन पर डॉ. सुशील बत्तलवार ने उनका स्वागत किया। मृदंगाचार्य सुरेश महाराज लाखेकर, गायनाचार्य संतोष राऊत, पवन लाखेकर, संतोष शेंदुरकर, लंकेश जांभारे, सुरेंद्र बेणकर, मुरली बांदरे, मनीष इसालकर, सूर्यभान बावणे, रत्नाकर कुलकर्णी, रामाजी चौधरी, खनगई ताई, ढोबले और संवादिनी वादक चंद्रकांत राठोड़ आदि का स्वागत मोहन भुजाडे ने किया। अंत में आरती के यजमान दत्तात्रय घुडे, सदानंद देशपांडे, विनायक बुवा भिसे, सुधीर भोयटे, बंसीलाल गोपालानी तथा एडवोकेट बदनोरे थे। कार्यक्रम का सूत्र संचालन स्मिता भोयटे ने अपनी विशेष शैली और काव्यमय प्रस्तुति से अत्यंत प्रभावी ढंग से संभाला।
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श्रोताओं ने श्रद्धापूर्वक प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ‘घालीन लोटांगण वंदिन चरणं’ दो पंक्तियों का यह अभंग इतना गहन ब्रह्मज्ञान समेटे हुए है, यह आज ज्ञात हुआ। श्रीराम के साथ नदी पार कराते समय केवट का संवाद कोई साधारण व्यवहार नहीं था, बल्कि वह भक्तिरस का श्रृंगार था। अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन और पादसेवन-इन छह प्रकार की भक्तियों को साधकर केवट स्वयं राममय हो गया। इसी उल्लेख के साथ पाटिल महाराज ने अपने कीर्तन का समापन किया।






