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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में झारखंड के एक मामले में आरोपी को राहत देते हुए स्पष्ट किया कि किसी को ‘मियां-तियां’ या ‘पाकिस्तानी’ कहने मात्र से धार्मिक भावना भड़काने का मुकदमा नहीं चल सकता। कोर्ट ने इसे असभ्य भाषा करार दिया, लेकिन कहा कि यह आईपीसी की धारा 298 के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता। इस फैसले के बाद बहस शुरू हो गई है कि आखिर किन परिस्थितियों में किसी टिप्पणी को कानूनी कार्रवाई लायक माना जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों किया केस खारिज?
मामला 2020 का है, जब झारखंड के बोकारो में एक सरकारी मुस्लिम कर्मचारी ने एफआईआर दर्ज करवाई थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि जब वह आरटीआई आवेदन का जवाब देने गए, तो एक व्यक्ति ने उनके धर्म को लेकर टिप्पणी की, उन्हें अपमानित किया और भड़काने की कोशिश की। पुलिस ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 353 (सरकारी काम में बाधा डालना), 504 (शांति भंग करने के उद्देश्य से अपमान) और 298 (धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के इरादे से कुछ कहना) के तहत मामला दर्ज किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस मामले में न तो कोई बल प्रयोग हुआ और न ही शांति भंग करने जैसी कोई बात सामने आई।
झारखंड हाईकोर्ट के फैसले को SC ने पलटा
लगभग 80 वर्षीय आरोपी को बोकारो की निचली अदालत और झारखंड हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली थी। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने कहा कि ‘मियां-तियां’ या ‘पाकिस्तानी’ कहने को भले ही असभ्य कहा जाए, लेकिन यह आईपीसी की धारा 298 के अंतर्गत अपराध नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने साफ किया कि किसी भी मामले में धार्मिक भावना आहत करने का अपराध तभी बनता है, जब आरोप साबित करने योग्य गंभीर आधार हों।
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फैसले के बाद क्या नए सवाल उठ रहे
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब यह चर्चा शुरू हो गई है कि आखिर किन परिस्थितियों में किसी बयान को कानूनी अपराध माना जाएगा। क्या केवल असभ्य भाषा का उपयोग किसी व्यक्ति को कानूनी रूप से दोषी ठहरा सकता है? यह फैसला भविष्य में ऐसे मामलों में एक मिसाल बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने न केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अपमानजनक भाषा की सीमा को परिभाषित किया है, बल्कि यह भी स्पष्ट किया है कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए कानूनी प्रावधानों का उपयोग सोच-समझकर किया जाना चाहिए।