भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के दौरान हुए एक समझौते को लेकर बड़ा आरोप लगाया
नई दिल्ली: भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर एक बार फिर बड़ा राजनीतिक आरोप सामने आया है। सोशल मीडिया पर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे द्वारा साझा किए गए एक कथित गोपनीय पत्र ने 1988 में हुए परमाणु समझौते को नई बहस में ला दिया है। उनका दावा है कि यह समझौता तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के दबाव में हुआ और उस समय भारत सरकार ने अमेरिका के एजेंडे पर पाकिस्तान से बातचीत की। यह आरोप केवल एक समझौते पर नहीं, बल्कि भारत की संप्रभुता और विदेश नीति के स्वतंत्र चरित्र पर भी सवाल खड़े करता है।
भाजपा सांसद ने यह भी आरोप लगाया कि राजीव गांधी ने अमेरिका से पाकिस्तान के साथ मध्यस्थता की मांग की थी, जो शिमला समझौते के खिलाफ है। इतना ही नहीं, उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व पर भी सवाल उठाए और कहा कि 1971 में अंतरराष्ट्रीय दबाव में युद्धविराम को स्वीकार किया गया। कांग्रेस की विदेश नीति को लेकर उन्होंने आरोप लगाया कि भारत की संप्रभुता को बार-बार विदेशी शक्तियों के अधीन कर दिया गया।
कांग्रेस को ग़ुस्सा क्यों आता है?
जब इस पेपर को हमने देखा तो मुझे आत्म ग्लानि हुई
अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने यह पत्र/ टेलीग्राम तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी को भेजा है
1. अमेरिकी दबाव में हम पाकिस्तानी राष्ट्रपति जेनरल जिया से बात किए
2. बातचीत का एजेंडा… pic.twitter.com/kz9qhPESeo— Dr Nishikant Dubey (@nishikant_dubey) May 29, 2025
गोपनीय पत्र से जुड़ा दावा और कांग्रेस पर सवाल
भाजपा सांसद ने सोशल मीडिया पर जो कथित गोपनीय पत्र साझा किया, उसके मुताबिक यह पत्र अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रीगन द्वारा राजीव गांधी को भेजा गया था। इसमें भारत और पाकिस्तान के बीच वार्ता के एजेंडे की बात की गई थी, जिसे अमेरिका ने तय किया था। सांसद का कहना है कि यह भारत की विदेश नीति को अमेरिका के अनुसार ढालने का उदाहरण है। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या उस समय भारत एक संप्रभु राष्ट्र था, जब तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को स्वीकार किया गया।
आतंक के खिलाफ भारत को दुनिया ने हरी झंडी दिखाई, इटली दिवस पर जयशंकर का कड़ा संदेश
समझौते की पृष्ठभूमि और राजनीतिक बहस
1988 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ यह समझौता दोनों देशों को एक-दूसरे की परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमला न करने और हर साल इनकी सूची साझा करने के लिए बाध्य करता है। हालांकि यह समझौता 1991 से लागू हुआ, लेकिन अब इसे लेकर यह सवाल उठ रहा है कि क्या इसे बाहरी दबाव में किया गया था। सांसद ने इसे शिमला समझौते के उस सिद्धांत के खिलाफ बताया जिसमें किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता को नकारा गया था।