कब छटेंगा अंधविश्वास का अंधेरा (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: इस अंतरिक्ष युग में भी कितने ही लोग अंधविश्वास और टोने-टोटके की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। इसके पीछे अशिक्षा के अलावा कहीं न कहीं स्वार्थ व साजिश भी है। बिहार के पूर्णिया में एक महिला को डायन बताकर उसे तथा झाड़फूंक करनेवाले उसके परिवार के 5 लोगों की हत्या कर दी गई और उनकी लाशें जलाने के बाद जलकुंभियों के बीच छिपाया गया। गांव में 3 दिन पहले एक बच्चे की मौत होने पर उस महिला को डायन करार दिया गया और 50 लोगों की भीड़ ने इस हत्याकांड को अंजाम दिया। इसी तरह मेलघाट में एक नवजात शिशु का पेट फूलने पर उसे डाक्टर के पास ले जाने की बजाय गर्म लोहे से दागा गया। ऐसी घटनाएं पिछड़ेपन को दर्शाती हैं।
ऐसी दिमागी गुलामी की वजह से ही लोग नीमहकीमों या झाड़फूंक करनेवाले ओझाओं पर विश्वास करते हैं। या तो अनेक दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों में डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं या फिर वहां रहनेवालों को डाक्टरों पर भरोसा नहीं है। इसके अलावा अंधविश्वास और कुप्रथाओं की आड़ लेकर हत्याएं भी की जाती हैं जिसमें कुछ लोगों का स्वार्थ रहता है। हमारे गौरवशाली देश में सदियों तक सती प्रथा के नाम पर महिलाओं की जान ली जाती रही। बंगाल में राजा राममोहन राय जब कहीं बाहर गए हुए थे तब उनके बड़े भाई का निधन होने पर उनकी भाभी को लोगों ने सती होने के लिए बाध्य किया था। वह पति की चिता से कूद कर भागी तो बांस और लाठियों से ठेलकर उसे चिता में जिंदा जलाया गया। इस घटना का पता चलने पर राममोहन राय ने ब्रिटिश शासकों पर जोर डालकर सती प्रथा के खिलाफ कड़ा कानून बनवाकर इस पर रोक लगवाई थी।
आज भी वृंदावन और वाराणसी में हजारों की तादाद में विधवाएं निराश्रित जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। इनमें से अधिकांश बंगाल से आई हैं। किसी बूढ़े व्यक्ति ने किसी कम उम्र की गरीब लड़की से शादी की और कुछ वर्ष बाद चल बसा तो उस व्यक्ति की पूर्व पत्नी से उत्पन्न बेटे व अन्य रिश्तेदार संपत्ति हड़पने के लिए उस विधवा को वृंदावन या वाराणसी में बेसहारा छोड़ आते हैं। यह कितना बड़ा अत्याचार है! किसी महिला की संपत्ति हथियाने या बदला भुनाने के लिए उसे डायन करार देने की घटनाएं आज भी होती हैं। यदि किसी की मौत हो जाए या फसल खराब हो जाए तो उसमें उस महिला का क्या दोष? उन्मादग्रस्त भीड़ को तो हत्या का बहाना चाहिए।
जब शहरों के सुशिक्षित लोग भी दुकानों में नींबू-मिर्च लटकाते हैं, बिल्ली के रास्ता काटने पर रुक जाते हैं तो ग्रामीण व आदिवासी इलाकों में व्याप्त मूर्खतापूर्ण अंधविश्वास का इलाज क्या है? तर्कसंगत वैज्ञानिक सोच एवं व्यापक जनजागृति से ही इसका निवारण हो सकता है। उन पाखंड़ियों का भंड़ाफोड़ होना चाहिए जो अंधविश्वास फैलाते हैं।
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा