
न्यायदान में तेजी लाना आवश्यक(सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: भारत के प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत ने न्यायदान की प्रक्रिया में तेजी लाने पर जोर दिया है. उन्होंने कहा कि अदालतों में मुकदमों का बैकलाग कम करना तथा सामंजस्य को बढ़ावा देना उनकी प्राथमिकता होगी. सुप्रीम कोर्ट में बकाया मामलों की तादाद 90,000 हो गई है. न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि यह समझना कठिन है कि लोग मुकदमा लेकर सीधे सुप्रीम कोर्ट में क्यों आ जाते हैं? उन्हें पहले कनिष्ठ न्यायालयों में जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वह उच्च न्यायालयों से बकाया मामलों के बारे में रिपोर्ट लेंगे तथा देश की निचली अदालतों से डाटा जमा करवाएंगे, इससे वास्तविकता सामने आ सकेगी।
अपने 15 माह के कार्यकाल में चीफ जस्टिस न्यायदान में गति लाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगे. इसके पूर्व भी अपने सार्वजनिक बयानों में न्यायमूर्ति सूर्यकांत न्यायिक सुधार लाने के लिए मानव संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की आवश्यकता पर जोर देते रहे हैं. न्यायिक ढांचे की कमियां पूरी करने तथा तकनीक के उपयोग से न्यायदान की प्रणाली सक्षम हो सकती है परंतु मानवीय स्पर्श के बगैर वह अधूरी रहेगी. ऐसे विश्व में जहां मशीन कविता लिख सकती है, हमें याद रखना चाहिए कि न्यायदान एक इंसानी व्यवहार है. इसमें विवेक की आवश्यकता होती है. यद्यपि न्यायिक सुधार की दिशा में काम हो रहा है लेकिन चीफ जस्टिस सूर्यकांत की तात्कालिक प्राथमिकता सुप्रीम कोर्ट में बकाया मामलों की तादाद घटाना है।
90,000 मामले विचाराधीन होना बहुत बड़ी चुनौती है. इसके लिए न्यायाधीशों का अधिकतम उपयोग करना होगा जो न्यायदान में गतिशीलता लाएं. चीफ जस्टिस ने कहा है कि वह अधिक संवैधानिक पीठ का गठन करेंगे क्योंकि वैधानिक स्पष्टता के अभाव में हाईकोर्ट व कनिष्ठ अदालतों में बहुत से मामलों का निपटारा नहीं हो पाया है. तकनीकी समन्वय तथा कुशल अदालत प्रबंधन पर जोर देकर बकाया मामलों की तादाद घटाई जा सकती है. यह बात भी अपनी जगह सही है कि विलंब से किया जानेवाला न्याय, न्याय नहीं होता।
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न्याय प्रक्रिया में विलंब के लिए वकील भी जिम्मेदार हैं जो तारीख पर तारीख लेते चले जाते हैं. जब एक दिन में 7 या 8 मामले निपटाए जा सकते हैं तो बोर्ड पर 30-35 मामलों की सूची क्यों लगाई जाती है? इससे मुकदमे से जुड़े वादी-प्रतिवादी व गवाह का समय बरबाद होता है। चीफ जस्टिस सूर्यकांत ने मध्यस्थता से मामले निपटाने का विकल्प रखा है. इससे अनेक मामले शीघ्रतापूर्वक हल हो सकते हैं। 2023 में पारित मध्यस्थता कानून इसमें काफी हद तक सहायक हो सकता है। दोनों पक्षों में आपसी सुलह करवाई जा सकती है क्योंकि मामला कई वर्षों तक चलते रहने से दोनों पक्षों की परेशानी व खर्च बढ़ता है. देश के उच्च न्यायालयों व कनिष्ठ अदालतों में ऐसे 1.84 करोड़ मामलों की पहचान की गई है जिन्हें मध्यस्थता से सुलझाया जा सकता है. सीजेआई के समर्थन व प्रोत्साहन से न्यायपालिका का बोझ कम करना संभव होगा।
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा






