भारत का अपमान क्यों कर रहे हैं ट्रंप (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने पद संभालते ही पहला काम यह किया कि पेरिस क्लाइमेट समझौते से अपने देश को अलग कर लिया. यह तीसरा अवसर है जब अमेरिका क्लाइमेट समझौते से अलग हुआ है सबसे पहले उसने यह हरकत 2001 में की थी, जब राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल से अमेरिका को अलग कर लिया था. वह समझौता महत्वपूर्ण था क्योंकि पहली बार 37 औद्योगिक देशों ने कार्बन डाईऑक्साइड एमिशन को कम करने के लिए निश्चित लक्ष्य निर्धारित किया था. बुश ने यह कहते हुए कि इससे अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है. समझौते को छोड़ दिया था।
यही कारण देते हुए 2017 में ट्रम्प ने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था. समझौते से अलग होने का अर्थ है कि अमेरिका एमिशन कम करने के लक्ष्यों को पूरा नहीं करेगा और चीन क्लाइमेट फंड में अपने हिस्से का पैसा नहीं देगा. यह फंड उन देशों की मदद करने के लिए है जो क्लाइमेट चेंज से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर है, पेरिस समझौता इस बात के लिए समर्पित है कि सभी देश मिलकर तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे न बढ़ने दें और उसे हर हाल में 2 डिग्री सेल्सियस तो कम रखें.
अमेरिका न सिर्फ संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है बल्कि 2006 तक वह दुनिया में सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता था. क्लाइमेट समझौतों पर उसका नजरिया यह प्रदर्शित करने का रहा है कि जैसे वह ही क्लाइमेट संकट का समाधान कर रहा है, कानूनी तौर पर उसने कभी भी एमिशन कम करने की हामी नहीं भरी. चूंकि वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्र ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों के एमिशन से बढ़ी है, इसलिए उनकी ही जिम्मेदारी है कि सफाई का अधिकतर खर्च भी वही वहन करें. बाइडेन प्रशासन के दौरान तेल व गैस का उत्पादन बड़ा अमेरिका विश्व में सबसे ज्यादा क्रूड आयल का उत्पादन करता है और 2023 में उसने रिकॉर्ड उत्पादन किया. अमेरिका गैस का भी सबसे बड़ा उत्पादक है और 2022 में वह लिक्विफाइड नेचरल गैस का संसार में सबसे बड़ा निर्यातक बना ट्रम्प अतिरिक्त वृद्धि करने के लिए समर्पित हैं. एमिशन कम करने का जो 2030 तक का लक्ष्य रखा गया है उसका अमेरिका ने 2022 तक केवल एक-तिहाई ही हासिल किया था.
कोयले पर निर्भर बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं- भारत, चीन व इंडोनेशिया के विपरीत अमेरिका कोयले पर कम निर्भर है. क्लाइमेट खाताओं में अमेरिका ने हमेशा से ही यूरोपीय संघ के कोयला- विरोधी दृष्टिकोण का समर्थन किया है, लेकिन ट्रम्प का ‘दिल बेबी ड्रिल’ नारा तेल व गैस की डिलिंग को अधिक प्रोत्साहित करेगा, जिसे पिछली सरकारों ने मामूली तौर पर ही धीमा किया था. अमेरिका का पेरिस समझौते से अलग होने का अर्थ होगा कि विकासशील देश कम महत्व लक्ष्यों को ही प्राथमिकता देंगे. क्लाइमेट लक्ष्यों से ग्लोबल एमिशन को कम नहीं किया जा सका है, इसलिए इस समय अमेरिका के अलग होने से कुछ खास फर्क पड़ने नहीं जा रहा है।
तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि पेरिस समझौते में लगभग 200 पार्टियां हैं जो औसत ग्लोबल तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की इच्छुक हैं और कोशिश यह कर रही है कि तापमान को पूर्व औद्योगिक स्तर यानी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाये. रईस देशों ने वायदा किया है कि वह 2035 तक प्रति वर्ष 300 बिलियन डॉलर गरीब देशों को देंगे ताकि वह तापमान को कम करने में सहयोग कर सकें. यह नया वायदा तब हुआ है, जब रईस देश 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देने का वायदा दो वर्ष से पूरा न कर सके। चूंकि अमेरिका संसार की सबसे बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था है इसलिए ब्रेन फंड में उसे सबसे अधिक हिस्सा देना था, जो अब नहीं आयेगा. साथ ही ट्रम्प के ‘दिल बेबी ड्रिल कार्यक्रम से अमेरिका 2030 तक जितनी कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकालता अब उस समय तक उससे 4 बिलियन टन अधिक निकालेगा जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी ही. अमेरिका के इस रवैये से संसार एकजुट होने की बजाय खेमों में विभाजित हुआ है. पृथ्वी व मानवता को बचाये रखने के लिए अधिक जोश से पेरिस समझौते को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए।
लेख- शाहिद ए चौधरी