जीवन की सार्थकता इसमें नहीं कि कौन कितने अधिक वर्षों तक जिया, बल्कि यह देखना चाहिए कि कोई कैसे जिया! यह पंक्ति महत्व रखती है- अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए. अनाथ बच्चों की मां कहलाने वाली पद्मश्री सिंधुताई सपकाल ने अपना 75 वर्षों का जीवन ऐसी ही सार्थकता व समग्रता से जिया. उन्होंने मानवता की ऐसी मशाल जलाई जो आनेवाले समय में लोगों का मार्गदर्शन करती रहेगी.
गरीबी में पली-बढ़ी सिंधुताई जीवन की चुनौतियों और संघर्षों का अनुभव कर चुकी थीं. जिंदगी की खुरदुरी हकीकत ने उन्हें हताश नहीं किया, बल्कि कठिनाइयों और विपरीत परिस्थितियों से धैर्यपूर्वक और सूझबूझ के साथ जूझने की प्रेरणा दी. उनका मनोबल ऊंचा होता चला गया. जो लोग अपने जीवन में कुछ रचनात्मक करना चाहते हैं, वे अपनी दिशा खुद चुनते हैं. वे आत्मकेंद्रित न होकर समग्र चिंतन रखकर दृढ़तापूर्वक उस मार्ग पर बढ़ते चले जाते हैं.
मुश्किलें उनका रास्ता नहीं रोक पातीं. सिंधुताई की करुणामयी मातृदृष्टि उन नन्हें अनाथ बच्चों की ओर गई जिनका दुनिया में कोई नहीं था. किसी के माता-पिता असमय गुजर गए थे तो किसी कुंवारी मां ने लोक-लाज के भय से अपने शिशु को लावारिस छोड़ दिया था. सिंधुताई ऐसे बच्चों के लिए फरिश्ता बनकर आईं. उन्होंने 40 वर्षों में ऐसे 1400 से अधिक अनाथ बेसहारा बच्चों को गोद लिया और उनकी परवरिश की. उन्हें पढ़ाया-लिखाया और शादी तक करवाई. अनाथ लड़कियों की शिक्षा व स्वावलंबन में मदद की. उनके यश की सुगंध फैलती चली गई. जब कोई साहसपूर्वक अच्छे काम का बीड़ा उठा ले तो लोग भी मदद के लिए आते हैं.
समाज से लेनेवाले तो बहुत होते हैं लेकिन देनेवाले विरले ही हुआ करते हैं. सिंधुताई सपकाल ने दिया ही दिया है. उन्होंने निस्वार्थ भाव से एक महान कार्य कर दिखाया. यदि इन अनाथ बच्चों की उन्होंने देखभाल न की होती तो न जाने उनका क्या हाल होता! लड़के अपराध की दुनिया में चले जाते और लड़कियां अत्यंत असुरक्षित हो जातीं. अनाथों की मां सिंधुताई की कीर्ति अमर रहेगी. उनके सत्कर्मों की विरासत को आगे बढ़ाना उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.