
कौन था ब्रह्मांड का पहला कांवड़िया (सौ.सोशल मीडिया)
Sawan Kanwar Yatra 2025 : महादेव का प्रिय महीना सावन हिन्दू धर्म में सबसे शुभ महीनों में जाना जाता है। इस महीने में, भक्त भगवान शिव की विशेष पूजा-अर्चना करते हैं और सोमवार का व्रत भी रखते हैं और इसके साथ ही सड़कों पर ‘हर हर भोले’ ‘जय शिव शंकर’ के नारे गूंजने लगते हैं।
हर साल की तरह इस बार भी हजारों शिवभक्त कांवड़ उठाकर निकल पड़े हैं गंगा जल लेने, ताकि वो जल शिवलिंग पर चढ़ाकर अपने आराध्य को खुश कर सकें। लेकिन क्या आप जानते हैं, कांवड़ यात्रा की शुरुआत कब हुई थी और किसने सबसे पहला कांवड़ उठाया था। आइए जानते हैं कांवड़ यात्रा से जुड़े दिलचस्प बातें-
अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था। वेद के अनुसार, कांवड़ यात्रा की परंपरा समुद्र मंथन के दौरान हुई। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब समुद्र मंथन में विष निकला तो इससे पूरा संसार त्राहि-त्राहि करने लगा।
तब भगवान शिव ने संसार को विष मुक्त करने के लिए स्वयं विषपान कर लिया। जिसके कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। परंतु विष के नकारात्मक प्रभावों ने शिव को घेर लिया।
शिव को विष के बुरे प्रभावों से बचाने के लिए उनके अनन्य भक्त रावण सबसे पहले आए। तत्पश्चात कांवड़ में जल भरकर रावण ने ‘पुरा महादेव’ स्थित शिवमंदिर में शिवजी का जल अभिषेक किया। इससे शिवजी विष के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त हुए और यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा का प्रारंभ हुआ।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, वैसे अंग्रेजों ने 19 वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है।
लेकिन, बता दें, कांवड़ यात्रा 1960 के दशक में उतनी धूमधाम से नहीं होती थी। कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था।
आपको बता दें, 1980 के दशक के बाद कांवड़ यात्रा एक बड़े धार्मिक उत्सव के रूप में उभरी है। संचार, सड़क, बिजली और मीडिया के विस्तार ने इसे और अधिक लोकप्रिय बना दिया है।
1990 के दशक के मध्य से, विशेष रूप से हरिद्वार की कांवड़ यात्रा, भारत की सबसे बड़ी वार्षिक धार्मिक सभाओं में से एक बन गई है, जिसमें लाखों लोग भाग लेते हैं।
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वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है।
लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी। कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था।
1980 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा। अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है।






