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पटना: बिहार की सियासी फिजाओं में एक नए समीकरण का सुरूर छा रहा है। जो एक तरफ सत्ता से दूर आरजेडी की लीडरशिप वाले महागबंधन के लिए सुखद ख़बर सरीखा है तो दूसरी तरफ सूबे में सीएम नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए के लिए चिंता का सबब बनने वाला है। अगर ऐसा हुई तो नीतीश कुमार की कुर्सी डगमगा सकती है। साथ ही बीजेपी को भी बड़ा झटका दे सकती है।
दरअसल, कहा यह जा रहा है कि हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM महागठबंधन में एंट्री मारने के लिए पूरी तरह से तैयार है। सीट बंटवारे का छोटा सा मसला है जो हल हुआ तो यह एंट्री पक्की है। वैसे तो ओवैसी की पार्टी 50 सीटों पर लड़ना चाहती है लेकिन अगर आरजेडी से बातचीत फाइनल हो जाती है तो वह कम सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार है। इस गठबंधन से मुसलमानों की एकता नतीजों पर असर डाल सकती है।
बिहार में जातियों और पार्टियों के चुनावी समीकरण पर नजर डालने से पहले जान लीजिए कि ओवैसी की पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और एकमात्र बचे विधायक अख्तरुल ईमान ने कहा है कि बातचीत चल रही है और महागठबंधन की तरफ से कोई नकारात्मक जवाब नहीं आया है। उन्होंने कहा कि बिहार में कोई एक पार्टी ऐसी नहीं है जो अकेले सांप्रदायिक ताकतों को हरा सके, इसलिए हमारी कोशिश है कि सभी एकजुट होकर चुनाव में जाएं।
2020 में ओवैसी की पार्टी से जीते 5 विधायकों में से 4 को आरजेडी ने अपने में शामिल कर लिया था। ईमान अकेले बचे हैं। अख्तरुल ईमान ने कहा- दोस्ती में हमेशा बड़े और छोटे का मामला होता है। छोटा हमेशा दोस्ती करना चाहता है, लेकिन जब तक बड़ा हाथ नहीं बढ़ाता।
ईमान ने कहा कि आरजेडी-कांग्रेस को बड़ा दिल रखना होगा, उन्हें फैसला लेना होगा। जब बात बन जाएगी, तब बात आगे बढ़ेगी। हमारी इच्छा है कि सांप्रदायिक ताकतों को बिहार से खदेड़ दिया जाए। दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के न्याय के लिए सरकार बने, जिसमें हमारी हिस्सेदारी है।
आपको 2020 के विधानसभा चुनाव की याद दिला दें जब असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने मिलकर ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट बनाया था। उस चुनाव में ओवैसी की पार्टी 20, BSP 78 और RLSP 99 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। ओवैसी के 5 विधायक जीते थे और ये सभी सीमांचल के अररिया, किशनगंज और पूर्णिया से जीते थे।
BSP से एक विधायक जीता था जो जेडीयू में शामिल होकर नीतीश सरकार में मंत्री बन गया था। कुशवाहा की पार्टी जीरो पर आउट हो गई थी। ओवैसी के 5 विधायक दो सीटों पर आरजेडी, दो पर बीजेपी और एक सीट पर वीआईपी को हराकर विधानसभा पहुंचे थे। इसमें ईमान को छोड़कर बाकी चार अब आरजेडी के साथ हैं।
बिहार में लालू यादव के टाइम से ही एमवाई (मुस्लिम यादव) आरजेडी और उसके समर्थक दलों की तरफ झुका रहा है। 2020 में ओवैसी ने इसे सीमांचल में चोट दी थी। जिसके चलते मुस्लिम वोट अच्छा खासा छिटका था। इसका नुकसान महागबंधन को हुआ लेकिन फायदा AIMIM के साथ-साथ बीजेपी और जेडीयू को भी मिला।
नीतीश सरकार द्वारा कराए गए जाति आधारित सर्वे के अनुसार, बिहार में यादवों की आबादी फिलहाल 14 फीसदी है और मुसलमानों की संख्या करीब 18 फीसदी है। 100 में से 32 मतदाता इन दोनों समुदायों से हैं जो तेजस्वी को मजबूती देते रहे हैं। महागठबंधन में आरजेडी के अलावा कांग्रेस, लेफ्ट और मुकेश सहनी की वीआईपी शामिल हैं। मुकेश सहनी का दावा है कि बिहार में निषादों की आबादी करीब 14 फीसदी है। सर्वे में मल्लाहों की आबादी 2।60 फीसदी निकली। सहनी का कहना है कि सर्वे में निषादों को उप-जातियों में तोड़कर दिखाया गया है ताकि उनकी असली ताकत सामने न आए।
सवर्ण वोट भाजपा के साथ मजबूती से खड़ा है, जबकि यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां जदयू के साथ खड़ी हैं। चिराग पासवान और जीतन राम मांझी की वजह से दलित और महादलित भी एनडीए खेमे में दिख रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा के इस खेमे से नाराज होकर उस खेमे में जाने का उतना ही खतरा है, जितना मुकेश सहनी के उधर से यहां आने का है।
अगर जाति समूह के स्तर पर देखें तो सर्वे के अनुसार बिहार में करीब 36 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), 20 फीसदी दलित वर्ग और 15 फीसदी उच्च वर्ग के लोग हैं। करीब डेढ़ फीसदी आदिवासी भी हैं।
हाल के चुनावों में अति पिछड़ा, दलित और सवर्ण मतदाता एनडीए के साथ रहे हैं। ओबीसी वोटों के लिए नीतीश और लालू यादव के बीच खींचतान है। लव-कुश नीतीश के साथ दिख रहे हैं, जबकि यादव तेजस्वी के पीछे मुखर हैं। सहनी वोट कुछ सीटों पर निर्णायक और कुछ इलाकों में प्रभावशाली हैं, लेकिन मुकेश सहनी की दिक्कत यह है कि वे खुद अब तक एक भी चुनाव नहीं जीत पाए हैं।
महागठबंधन में कैडर वोट वाली वामपंथी पार्टियों खासकर भाकपा माले ने शाहाबाद और मगध इलाकों में अपनी पकड़ लगातार मजबूत की है। इसका फायदा राजद और कांग्रेस को भी मिल रहा है। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के समय से ही कांग्रेस की राजनीति को दलितों और पिछड़ों को अपने पाले में लाने पर केंद्रित कर रखा है। बिहार में दलित वोट का एक हिस्सा छीनने के लिए कांग्रेस ने रविदास जाति के दलित विधायक राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाया है।
ओवैसी और महागठबंधन के बीच गठबंधन होने की स्थिति में मुस्लिम वोटों के बंटवारे का खतरा काफी हद तक कम हो जाएगा। ऐसे में लोकसभा चुनाव के बाद नई ताकत के साथ विधानसभा चुनाव लड़ने को तैयार महागठबंधन नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की लोकप्रियता पर सवार एनडीए की लड़ाई को जरूर कड़ा बनाएगा। नीतीश ने 225 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है।
ओवैसी के अलग-अलग लड़ने से नीतीश को बहुमत हासिल करने में मदद मिल सकती है, लेकिन अगर वे तेजस्वी के साथ आ गए तो दोनों गठबंधनों के बीच आमने-सामने की टक्कर तय है। ऐसे माहौल में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ही एकमात्र खेमा होगा जो न नीतीश न तेजस्वी का नारा लगाने वालों के लिए चुनावी विकल्प बन सकता है।
वहीं, जब चुनाव में हार-जीत का मुद्दा हावी हो जाता है तो मतदाता पार्टी प्रतिबद्धता छोड़कर रणनीतिक वोटिंग भी करता है। दोतरफा चुनाव में प्रशांत की पार्टी के लिए रणनीतिक वोटिंग को रोकना मुश्किल हो सकता है। चुनाव में अभी चार महीने बाकी हैं। लेकिन जिस तरह से समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं, उससे यह गारंटी है कि चुनाव में कांटे की टक्कर होगी।