राज और उद्धव के मिलन की खब़र सिर्फ हवाहवाई। (सौजन्यः सोशल मीडिया)
ठाणे: महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले कुछ दिनों से यह चर्चा तेज़ है कि राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे एक बार फिर साथ आ सकते हैं। दोनों के बीच रिश्तों की पुरानी तल्ख़ियों को भुलाकर एक “मराठी एकता” की नई पटकथा लिखने की बात की जा रही थी। पर ठीक इसी मोड़ पर मनसे नेता संदीप देशपांडे का एक तीखा बयान सामने आया है, जिसने इस संभावित एकता पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।
राज ठाकरे ने कुछ दिन पहले कहा था कि “महाराष्ट्र और मराठी हित के लिए पुराने विवाद भुलाने को तैयार हूं।” इसके जवाब में उद्धव ठाकरे ने भी सकारात्मक संकेत दिए थे। दोनों नेताओं के बयान के बाद, कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेताओं के बीच बातचीत शुरू हो गई थी और एक संभावित युति की सुगबुगाहट उठने लगी थी। लेकिन अब संदीप देशपांडे की ओर से किया गया एक सोशल मीडिया पोस्ट इस पूरे माहौल को झटका देने वाला साबित हुआ है।
संदीप देशपांडे ने एक्स पोस्ट पर लिखा की “हां, हम नए हैं, लेकिन हमने कभी ‘केम छो वरली’ कहकर किसी के पैर नहीं चाटे। न ही ‘जलेबी-फाफड़ा, उद्धव ठाकरे अपने हैं’ जैसी बातें कहीं। मुस्लिम वोटों के लिए हमने अपने ही भाई के कार्यकर्ताओं पर 20,000 केस नहीं डाले। हमें गर्व है कि हम नए हैं। तुम पुराने होकर भी क्या कर पाए?”
होय आम्ही नवीन आहोत पण कधी केम छो वरळी म्हणून कोणाचे पाय चाटले नाहीत,जिलेबी अने फाफडा उद्धव ठाकरे आपडा असं म्हणालो नाही .मुस्लिमांची मत मिळवण्या साठी वीस हजार केसेस आपल्याच भावाच्या कार्यकर्त्यांवर टाकल्या नाही आम्हाला अभिमान आहे आम्ही नवीन आहोत तुम्ही जुने असून काय उपटली
— Sandeep Deshpande (@SandeepDadarMNS) June 23, 2025
इस पोस्ट के बाद स्पष्ट हो गया है कि मनसे के भीतर उद्धव ठाकरे के नेतृत्व को लेकर आज भी अविश्वास और आक्रोश बना हुआ है। राज–उद्धव की संभावित एकता को लेकर कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक उत्साहित थे। लेकिन देशपांडे की टिप्पणी से यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या यह एकता कभी सच हो पाएगी? क्या मनसे की पूरी टीम इस गठबंधन के पक्ष में है?
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मनसे के वरिष्ठ नेता बाला नांदगावकर ने इस विवाद पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “राजनीति में फैसले समय देखकर होते हैं। अभी कहना मुश्किल है कि ठाकरे बंधु साथ आएंगे या नहीं।
माहौल तो बन रहा है, लेकिन अंतिम निर्णय नेतृत्व ही करेगा।” संदीप देशपांडे का तीखा हमला इस ओर इशारा करता है कि राज–उद्धव मिलन की राह इतनी आसान नहीं है। राजनीतिक बयानबाज़ियों के बीच असली चुनौती विश्वास की दीवार खड़ी करने की है। क्या ये दीवार उठेगी, या एक बार फिर इतिहास अपने आप को दोहराएगा यही देखना बाकी है।