RPI (सौजन्य-सोशल मीडिया)
Nagpur News: समय के साथ डॉ. बाबासाहेब के महाप्रयाण के बाद उनकी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया पार्टी का पतन शुरू हो गया। वर्तमान में आलम यह है कि पार्टी में 50 से अधिक अलग-अलग गुट तैयार हो गए हैं। कई संस्थाएं और संगठन भी चुनाव मैदान में उतर रहे हैं।
हर दिन रिपब्लिकन पार्टी का एक नया गुट बन रहा है, इसलिए आंबेडकरवादी कार्यकर्ता भी असमंजस में हैं। आंबेडकरवादी विचारधारा का एक भी विधायक नहीं चुना जा रहा है। हालांकि जैसे-जैसे पार्टी बढ़ती जा रही है, सवाल यह है कि विभाजित कार्यकर्ता किसका झंडा थामेंगे?
हाल ही में भीमराव आंबेडकर ने बताया कि उन्होंने एक नई आरपीआई का पंजीकरण कराया है। ऐसे कई आरपीआई समूह हैं। यदि महाराष्ट्र में आरपीआई को सफलता नहीं मिलती है तो भीमराव आंबेडकर बिहार में चुनाव लड़ेंगे, इसलिए वहां उन्हें कितनी सफलता मिलेगी, यह जल्द ही स्पष्ट हो जाएगा। इसके अलावा बड़ा सवाल यह है कि राज्य के 13 करोड़ में से 1.55 करोड़ दलित मतदाता किस पार्टी को वोट देंगे?
राज्य विधानसभा में 29 आरक्षित सीटें हैं। इनमें से 19 पर बड़ी संख्या में दलित मतदाता हैं। दलित समुदाय को 15 प्रतिशत सामाजिक आरक्षण प्राप्त है। इसमें बौद्ध और नव-बौद्धों का बड़ा प्रभाव है। हालांकि बदलते राजनीतिक समीकरण के अनुसार, गैर-बौद्ध दलित लगातार दलित हिंदुओं जैसे बड़े वर्ग को अपने साथ लाकर जीत रहे हैं।
आंबेडकरवादी विचारकों की मानें तो मौलिक विचारों और मुद्दों की जानकारी के अभाव के कारण ऐसे प्रतिनिधियों द्वारा समाज की समस्याओं को नहीं उठाया जा रहा है। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया को देखते हुए इस मूल नाम में अपना नाम जोड़कर एक अलग समूह बनाने की एक नई परंपरा शुरू हुई है। इस गुटीय राजनीति के कारण बिखरे हुए वोट अन्य दलों को लाभ पहुंचा रहे हैं।
कई कार्यकर्ता आज आरपीआई छोड़कर ‘आंबेडकरवादी आंदोलन के कार्यकर्ता’ की उपाधि का उपयोग करके अन्य दलों में शामिल हो रहे हैं। उनके बखूबी और उचित उपयोग की एक तस्वीर उजागर हो रही है। राज्य विधानसभा को देखते हुए आरपीआई का एक भी विधायक आधिकारिक रूप से नहीं चुना जाता है। कभी-कभी एक विशिष्ट आरपीआई उम्मीदवार आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से जीत जाता था किंतु अब ऐसा नहीं है।
भारत रत्न डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के परिवार के सदस्यों की 3 पार्टियां हैं। इनमें प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाड़ी, आनंदराज आंबेडकर की रिपब्लिकन सेना और अब भीमराव आंबेडकर की आरपीएआई (भीमराव आंबेडकर ग्रुप) शामिल हैं। दलित समुदाय में आंबेडकर परिवार को लेकर एक अलग ही विश्वास है।
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समाज आज भी इस परिवार की ओर बड़ी उम्मीद से देखता है लेकिन 3 पार्टियों के साथ सवाल यह है कि दलित मतदाता किसके पक्ष में जाएंगे? हालांकि प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाड़ी कई बार दमखम तो दिखाती है किंतु वरिष्ठ नेताओं के अड़ियल रवैये से कार्यकर्ताओं का नुकसान हो रहा है।
पार्टियों के उदय के साथ समाज के प्रतिनिधियों के बीच से संगठनों की एक नई पीढ़ी भी उभरी है। वे विभिन्न नामों से संगठन स्थापित कर रहे हैं। ये संगठन अब स्थानीय स्तर के चुनावों में भी हिस्सा ले रहे हैं। इससे वोटों का एक बड़ा विभाजन फिर से पैदा होने की आशंका है। ये संगठन जिन्होंने एक भी साधारण पार्षद नहीं चुना है, एकजुट होकर अपनी ताकत दिखा सकते हैं।