कारगिल विजय दिवस (सोर्स-सोशल मीडिया)
नई दिल्ली: 26 जुलाई 1999, वो तारीख जब भारत ने नापाक इरादों वाले पाकिस्तानी आर्मी समर्थित आतंकियों को कारगिल के चोटी से खदेड़कर वहां तिरंगा फहरा दिया था। यही वजह है कि भारत आज 25वां कारगिल विजय दिवस मना रहा है। द्रास दुल्हन की तरह सजा हुआ है। भारतीय सेना के रणबांकुरे जमीन-ओ-आसमान में करतब दिखाकर खुशी का इजहार कर रहे हैं। आपने भी कारगिल वार के बारे में सुना होगा! हो सकता है इस युद्ध पर बनी फिल्में भी देखी हों! लेकिन इस युद्ध की पटकथा कैसे लिखी गई और मां भारती के सपूतों ने किस तरह से दुश्मन को धूल चटाई हम आपको बताते हैं।
3 मई1999 की बात है जब कश्मीर के बटालिक सेक्टर में दो गड़रियों ताशी नमगयाल और त्सेरिंग मोरूप ने काला कुर्ता पायजामा पहने कई लोगों को बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल की जाने वाली सफ़ेद जैकेट पहने पहाड़ों पर चढ़ते हुए देखा था। लंबी दाढ़ी वाले इन लोगों के हाव-भाव एकदम अलग थे। सेना के मुखबिर इन दोनों गड़रियों ने सीधा यह ख़बर हिंदुस्तानी फौजी अफसरों को खबर पहुंचा दी। अफसरों ने भी बात सुनी और आगे बढ़ा दी।
इसके ठीक 2 दिन बाद डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल चंद्र विज कारगिल पहुंचे और वहां तैनात जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल वीएस बधवार और कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह से मुलाकात की। लेकिन इस दौरान काले कुर्ते पायजामे पहने लोगों की बात उन्हें नहीं बताई गयी। उधर 10 मई को सेनाध्यक्ष वीपी मलिक पोलैंड और चेक गणराज्य की कंपनियों से गोला बारूद की आपूर्ति का करार करने के लिए पहुंच गए।
इधर, बटालिक, मुश्कोह और द्रास में हलचल बढ़ चुकी थी। लेकिन बताते हैं कि जब हर शाम वे खोज-खबर लेने के लिए फ़ोन करते तो उन्हें सब-कुछ ठीक-ठाक होने या छिटपुट वारदात की बात ही बताई जाती। लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी यूनिट के छह जवान काकसार पहाड़ों पर गश्त करने निकले थे। वे वापस नहीं आये तो खोज-खबर हुई। काफ़ी दिनों तक तो देश को यही बताया गया कि पाकिस्तान की तरफ से छुटपुट गोलाबारी हो रही है और उसका माकूल जवाब दिया जा रहा है।
इसके कुछ दिन बाद सौरभ कालिया और उनके साथी जवानों के क्षत-विक्षत शव लौटाए गए। अब तक रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस को इस बात का आभास होने लगा था कि कारगिल में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। यही वजह है कि वे कारगिल दौरे पर पहुंच गए। इसके बाद उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान करते हुए कहा कि “हां, कुछ 100-150 आतंकवादी घुस आये हैं। उन्हें 48 घंटों में बाहर निकाल दिया जाएगा।”
दुश्मन ऊपर था और नीचे से बैठकर और ख़राब मौसम की वजह से ऊपर की चोटियों का सही आकलन नहीं हो पा रहा था। 17 मई को कारगिल की चोटियों का पहली बार हवाई सर्वेक्षण किया गया। इसके चार दिन बाद दूसरा हवाई जहाज कारगिल, द्रास और बटालिक की चोटियों की सही स्थिति जानने के लिए पहुंचा तो वहां उस पर स्टिंगर मिसाइल से हमला किया गया। पायलट ए. पेरूमल दुर्घटनाग्रस्त जहाज को भी सकुशल वापस लेकर लौटने में कामयाब रहे और आकर पूरी स्थिति बताई। उन्होंने बताया कि ‘काले कुर्ते पायजामे वाले’ पूरी तैयारी के साथ एक-एक चोटी पर कब्जा कर के बैठे हैं। उनकी संख्या 100-150 की नहीं बल्कि पूरी की पूरी आर्मी यूनिट जैसी है।
जनरल मलिक 21 मई को भारत वापस लौटे। उन्होंने लाहौर समझौते को अपनी जीत मानने वाले पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात कर बताया कि उनकी पीठ पर छुरा घोंप दिया गया है। अटल बिहारी बाजपेई ने भी तुरंत सेना को ईंट का जवाब पत्थर से देने का आदेश दे दिया। इसके बाद 26 मई, 1999 को सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ और एयर फ़ोर्स ने ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ शुरू किया। ठीक दो महीने बाद यानी 26 जुलाई को यह भारतीय सेना की जीत के साथ खत्म हुआ। कारगिल में सेना के कुल 34 अफसर और 493 जवान शहीद हुए जबकि 1363 जवान घायल हुए थे।
देश आज भी स्क्वैड्रन लीडर अजय आहूजा, लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, कैप्टेन विक्रम बत्रा, कैप्टन मनोज पाण्डेय, लेफ्टिनेंट हनीफउद्दीन, हवलदार अब्दुल करीम के सर्वोच्च बलिदान और राइफलमैन संजय कुमार व योगेन्द्र यादव जैसे जाबाज़ सैनिकों के रणकौशल को याद करता है। ये वो नाम हैं जो अकेले सैकड़ों पर भारी पड़े थे।
कारण की बात करें तो भारत-पाकिस्तान में एक अलिखित समझौता था कि सर्दियों में पहाड़ों से अपने-अपने सैनिक वापस बुला लिए जाएंगे और जब गर्मियां शुरु होंगी तो फिर अपनी-अपनी चौकी स्थापित कर ली जायेगी। पाकिस्तान ने इसमें वादा खिलाफी की। सर्दियों में जब भारतीय सेना वहां पर नहीं थी, उसने अपने सैनिक भेजकर हर एक चोटी पर कब्ज़ा कर लिया था। चूंकि उन चोटियों से लेह और लद्दाख जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीधा हमला बोला जा सकता था, पाकिस्तानी सेना ने प्लान बनाया कि इससे वह देश का लद्दाख से संपर्क तोड़ देगी और फिर इसके ज़रिए कश्मीर मुद्दे पर फ़ायदा उठा लिया जायेगा।
इस युद्ध को लेकर पाकिस्तान हमेशा यह कहता रहा कि वे उसके सैनिक नहीं बल्कि कश्मीर की आज़ादी की जंग लड़ने वाले सिपाही हैं। भारतीय सेना के सबूत दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान अपने सैनिक होने की बात नकारता रहा। लेकिन इस युद्ध के दौरान नवाज़ शरीफ जब अमेरिका गए तो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दुस्साहस पर झाड़ भी लगायी थी।
अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ जनरल मलिक लिखते हैं कि लगभग गिड़गिड़ाते हुए शरीफ ने क्लिंटन से यह कहते हुए सहयोग मांगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा। लेकिन बिल क्लिंटन ने मना कर दिया और उनके दबाव के बाद शरीफ अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर मजबूर हुए।