
पूर्व पीएम मनमोहन सिंह
Manmohan Singh Death Anniversary Special: ‘हजारों जवाबों से बेहतर है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी।’ संसद के गलियारों में गूंजी ये पंक्तियां महज एक शेर नहीं, बल्कि उस प्रधानमंत्री का जवाब थीं जिसे दुनिया ने अक्सर ‘मौन’ समझ लिया था। 26 दिसंबर की तारीख भारतीय राजनीति के लिए एक भावनात्मक दिन है। 2024 में इसी दिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने दुनिया को अलविदा कहा था। एक ऐसे नेता जिन्होंने कभी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता, जिन्हें ‘एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ कहा गया, लेकिन जिन्होंने 10 वर्षों तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का नेतृत्व किया। उनकी चुप्पी में भी एक आवाज थी, जिसे इतिहास आज सुन रहा है।
26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत (अब पाकिस्तान) के पंजाब में जन्मे मनमोहन सिंह की कहानी किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं लगती। वे न तो जन्मजात राजनेता थे और न ही राजनीति उनका शौक थी। वे मूल रूप से एक अर्थशास्त्री और एक कुशल ब्यूरोक्रेट थे। परिस्थितियों और किस्मत के मेल ने उन्हें पहले वित्त मंत्री और फिर सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया। हैरानी की बात यह है कि 10 साल तक देश का नेतृत्व करने वाले मनमोहन सिंह ने कभी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता। वे हमेशा राज्यसभा के माध्यम से संसद पहुंचे और देश को दिशा दी।
उन्होंने अपनी आंखों के सामने भारत को आर्थिक ताकत बनते देखा और अपनी ही सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरते भी देखा, लेकिन उनकी व्यक्तिगत छवि हमेशा साफ-सुथरी बनी रही। मनमोहन सिंह का कार्यकाल आसान नहीं था। विपक्ष ने उनकी छवि एक ‘कमजोर’ और ‘रिमोट कंट्रोल’ प्रधानमंत्री के रूप में गढ़ दी थी। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उन पर सबसे तीखा हमला किया था। एक भाषण में आडवाणी ने कहा था, ‘मैंने इससे कमजोर प्रधानमंत्री पहले कभी नहीं देखा।’ उनका इशारा साफ था कि सत्ता की असली ताकत 7 रेस कोर्स रोड नहीं, बल्कि 10 जनपथ के पास है।
लालकृष्ण आडवाणी के साथ पूर्व पीएम मनमोहन सिंह
आरोप इतने बढ़ गए कि इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री कार्यालय को सफाई देने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी। मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी ने आंकड़ों के साथ बताया कि मनमोहन सिंह ‘मौन’ नहीं थे। अपने 10 साल के कार्यकाल में उन्होंने करीब 1198 भाषण दिए थे, यानी औसतन हर तीसरे दिन प्रधानमंत्री कुछ न कुछ बोलते थे। लेकिन धारणा इतनी मजबूत थी कि ये आंकड़े भी उनकी ‘खामोश’ छवि को बदल नहीं पाए।
यूपीए-2 के दौर में जब 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले ने सरकार को हिला दिया था, तब भी मनमोहन सिंह शांत रहे। लेकिन 27 अगस्त 2012 को संसद में उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और वही चर्चित शेर पढ़ा, ‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी…’। विरोधियों ने उन्हें ‘रिमोट कंट्रोल पीएम’ कहा और निर्णय न लेने के आरोप लगाए। मगर यह भी सच है कि परमाणु समझौते के मुद्दे पर यही ‘कमजोर’ प्रधानमंत्री अपनी सरकार को दांव पर लगाने से नहीं हिचका।
मनमोहन सिंह, PM मोदी
अपने विदाई भाषण में मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘मुझे उम्मीद है कि इतिहास मेरे साथ मीडिया की तुलना में ज्यादा नरमी बरतेगा।’ आज पीछे मुड़कर देखें तो यह बात सच साबित होती नजर आती है। 26 दिसंबर 2024 को जब उनकी सांसें थमीं, तो देश ने एक ऐसे विद्वान को खो दिया, जिसकी खामोशी में अर्थव्यवस्था को बदलने की ताकत थी। वे भारतीय राजनीति के वे ‘खामोश योद्धा’ थे, जिनके काम का शोर उनके जाने के बाद सुनाई दिया।
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मनमोहन सिंह को केवल प्रधानमंत्री के रूप में याद करना उनके साथ न्याय नहीं होगा। 1991 में जब भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था और सोना गिरवी रखने की नौबत आ गई थी, तब वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने ही आर्थिक उदारीकरण का रास्ता खोला। आज विदेशी ब्रांड्स, एमएनसी और वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की भागीदारी की जो बात होती है, उसकी बुनियाद उन्होंने ही रखी थी। उन्होंने विक्टर ह्यूगो के शब्दों में कहा था, ‘दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका समय आ गया हो।’






