कैप्टन मनोज कुमार पांडे (सोर्स- सोशल मीडिया)
नई दिल्ली: आज से 26 साल पहले भारत-पाकिस्तान के बीच कारगिल में गोलियों की गूंज सुनाई दे रही थी। सबसे दुर्गम क्षेत्र में भारतीय सेना नापाक घुसपैठियों को खदेड़ने के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ चला रही थी। मां भारती के वीर सपूत एक-एक कर दुश्मन के कब्जे भारतीय सरजमीं को आजाद करा रहे थे।
कारगिल युद्ध के दौरान आज ही के दिन यानी 3 जुलाई 1999 को भारतीय जांबाजों ने जौबार टॉप और खालूबार चोटी से दुश्मनों को खदेड़कर विजय हासिल की। लेकिन इस जीत की कीमत ‘भारत के परमवीर’ योद्धा कैप्टन मनोज पांडे ने अपना लहू देकर चुकाई थी। देश आज उन्हें 50वीं पुण्यतिथि पर नमन कर रहा है।
युद्ध शुरू होने से पहले भारतीय जवान सियाचिन की पहाड़ियों पर अपनी तीन महीने की ड्यूटी पूरी करने के बाद पुणे में पीस पोस्टिंग पर जाने का इंतजार कर रहे थे। तभी अचानक युद्ध शुरू होने की खबर मिली और जवानों को पुणे नहीं बल्कि कारगिल जाने को कहा गया। इसके बाद कैप्टन मनोज कुमार पांडे समेत भारतीय सेना के सभी जवान दुश्मनों से लोहा लेने के लिए तेजी से आगे बढ़े।
गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन के कैप्टन मनोज कुमार पांडे हमेशा से चुनौतियों से खेलने के आदी रहे हैं। वे खुद आगे बढ़कर अपने साथियों के साथ कारगिल की ओर बढ़े। कैप्टन मनोज कुमार पांडे ने ‘ऑपरेशन विजय’ के दौरान कई साहसिक हमलों में हिस्सा लिया और 11 जून 1999 को बटालिक सेक्टर से घुसपैठियों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में 3 जुलाई 1999 की सुबह जौबर टॉप और खालूबार पर कब्जा किया गया।
कैप्टन मनोज कुमार पांडे (सोर्स- सोशल मीडिया)
कारगिल युद्ध को भारतीय धरती पर लड़ी गई सबसे खूनी लड़ाइयों में से एक माना जाता है। इस युद्ध में भारत के सैकड़ों वीर जवानों ने अपनी जान कुर्बान की। इनमें अनुज नायर, विक्रम बत्रा, योगेन्द्र यादव, और कैप्टन मनोज पांडे जैसे वीर जवान शामिल थे। गोली लगने के बावजूद इन जवानों ने घुसपैठियों का डटकर मुकाबला किया और अपने देश के हर मोर्चे पर जीत हासिल की।
कैप्टन मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 को यूपी के सीतापुर के कमलापुर में हुआ था। उनके पिता का नाम गोपी चंद्र पांडे था। बचपन से ही कैप्टन मनोज पांडे अपनी मां से वीरों की कहानियां सुनते थे। इन कहानियों ने उनके मन में सेना में भर्ती होने की इच्छा को और मजबूत किया। मनोज की शिक्षा लखनऊ के सैनिक स्कूल में हुई। यहीं से उन्होंने अनुशासन और देशभक्ति का पाठ सीखा। इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी करने के बाद मनोज ने प्रतियोगी परीक्षा पास की और पुणे के पास खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में दाखिला लिया।
कारगिल युद्ध भारत के लिए बेहद तनावपूर्ण स्थिति थी। सभी सैनिकों की आधिकारिक छुट्टियां रद्द करते हुए मोर्चे पर बुला लिया गया था। महज 24 साल के कैप्टन मनोज पांडे को ऑपरेशन विजय के दौरान जौबार टॉप पर कब्जा करने की जिम्मेदारी दी गई थी। हाड़ कंपा देने वाली ठंड और थका देने वाले युद्ध के बावजूद कैप्टन मनोज कुमार पांडे का साहस कम नहीं हुआ।
सेना के दफ्तर में कैप्टन मनोज पांडे (सोर्स- सोशल मीडिया)
युद्ध के दौरान भी वे अपनी डायरी में अपने विचार लिखते थे। उनके विचारों में देश के प्रति उनका प्रेम साफ झलकता था। उन्होंने अपनी डायरी में लिखा था, “अगर मेरी बहादुरी साबित होने से पहले मौत मुझ पर हमला करती है, तो मैं अपनी मौत को खुद ही मार डालूंगा।” बचपन से ही कैप्टन मनोज पांडे अपनी मां से वीरों की कहानियां सुनते थे।
इंटरव्यू के दौरान सर्विस सिलेक्शन बोर्ड ने उनसे पूछा था, “आप सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं?” मनोज ने कहा, “मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूं।” मनोज पांडे न केवल सेना में भर्ती हुए, बल्कि उन्हें 1/11 गोरखा राइफल्स में कमीशन भी दिया गया। इंटरव्यू में कही गई उनकी हर एक बात सच साबित हुई। कारगिल युद्ध में बहादुरी और सर्वोच्च बलिदान केलिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
3 जुलाई 1999 कैप्टन मनोज पांडे के जीवन का सबसे ऐतिहासिक दिन था। हाड़ कंपा देने वाली ठंड में उन्हें खालूबार चोटी को दुश्मनों से आजाद कराने की जिम्मेदारी दी गई थी। उन्हें दुश्मनों को दाईं तरफ से घेरना था। जबकि बाकी की टुकड़ी बाईं ओर से दुश्मन को घेरने जा रही थी। उन्होंने चीते की तरह दुश्मन सैनिकों पर हमला किया और अपनी खुकुरी से चार घुसपैठियों को जहन्नुम पहुंचा दिया।
इस पूरे अभियान में उनके कंधे और घुटनों पर चोट लगी थी। घायल होने के बावजूद उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया। वे घायल अवस्था में भी अपने सैनिकों को लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने अपनी गोलियों और ग्रेनेड हमलों से दुश्मन के सभी बंकरों को नष्ट कर दिया। इन हमलों की चोट से उनकी जान दांव पर लग गई और कैप्टन मनोज पांडे ने खालूबार की चोटी पर बहादुरी के सर्वोच्च शिखर को छुआ।