पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (सोर्स-सोशल मीडिया)
नवभारत डेस्क: लोग मर जाते हैं लेकिन उनका व्यक्तित्व जीवित रहता है। जीवन समाप्त हो जाता है, लेकिन विचार कभी समाप्त नहीं होते। 31 अक्टूबर 1984 का दिन इतिहास का वह काला दिन है, जब देश की शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी शहीद हुईं। उस दिन खालिस्तानी समर्थक आतंकियो की गोलियों से भूना हुआ इंदिरा का शरीर तो चिता में खाक हो गया लेकिन इंदिरा ने इतिहास के पन्नों पर जो लिखा, वह सदियों तक शाश्वत रहेगा।
देश आज यानी गुरुवार 31 अक्टूबर को इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी उर्फ इंदिरा गांधी की 40वीं पुण्यतिथि मना रहा है। इस मौके पर हम आपके लिए उनकी जिंदगी से जुड़े दो रोचक किस्से लेकर आए हैं। सोचिए ऐसा क्या था कि इंदिरा अक्सर अपनी मौत की बात किया करती थीं। क्या कोई जीते जी मौत की आहट को पहचान सकता है? अगर हां तो इंदिरा ने भी शायद वह आहट सुन ली थी।
ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद खुफिया विभागों ने इंदिरा गांधी को सूचना दी कि उनकी जान को खतरा है। इसके बाद उनकी सुरक्षा में तैनात सभी सिख सुरक्षा गार्डों को हटा दिया गया। लेकिन इंदिरा गांधी ने कहा कि उनके लिए सभी धर्मों के लोग एक समान हैं और वह हर धर्म का सम्मान करती हैं, इसलिए उन्हें किसी से कोई खतरा नहीं है। इसके बाद सभी सुरक्षा गार्डों को वापस बुला लिया गया, लेकिन उस दिन के बाद से इंदिरा गांधी के चेहरे पर एक बेचैनी दिखाई देने लगी। वह अक्सर अपने घर में कुछ करीबी दोस्तों के साथ अपनी मौत पर चर्चा करने लगीं।
हत्या से ठीक एक दिन पहले यानी 30 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी ने भुवनेश्वर में अपने भाषण में कहा था कि ‘मैं जिंदा रहूं या न रहूं लेकिन मेरे खून की हर बूंद एक नए भारत को मजबूत देगी।’ अगले ही दिन बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया। इंदिरा गांधी की आत्मा तो पंक्षी की तरह उड़ गई लेकिन इंदिरा गांधी ने राजनीति पर जो छाप छोड़ी वो आज भी अमर है। कहते हैं कि शरीर तो मरता है लेकिन आत्मा अमर हो जाती है।
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महात्मा गांधी से प्रभावित होकर शाकाहार अपनाने वाले जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी कमला नेहरू चाहते थे कि उनकी बेटी इंदिरा गांधी भी शाकाहारी बने। लेकिन इंदिरा गांधी के साथ घटी एक घटना ने नेहरू दंपत्ति की इच्छा पूरी नहीं होने दी। इंदिरा गांधी ने अपने संस्मरण ‘बचपन के दिन’ में उस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, “गांधी जी से प्रभावित होकर मेरे माता-पिता ने मांस खाना बंद कर दिया और यह तय किया गया कि मुझे भी शाकाहारी बनाया जाएगा।
इंदिरा ने लिखा है कि चूंकि मैं बड़ों से पहले खाना खाती थी, इसलिए मुझे नहीं पता था कि उनका खाना मेरे खाने से अलग है। एक दिन मैं अपनी दोस्त लीला के घर खेलने गई और उसने मुझे दोपहर के भोजन के लिए रुकने के लिए कहा। रात के खाने में मांस परोसा गया। अगली बार जब मेरी दादी ने मुझसे पूछा कि मेरे लिए क्या मंगाया जाए, तो मैंने उन्हें लीला के घर पर खाई गई स्वादिष्ट नई सब्जी के बारे में बताया। इंदिरा जी ने लिखा है कि दादी ने सभी सब्जियों के नाम लिए लेकिन हमारे घर में ऐसी कोई सब्जी नहीं परोसी गई। अंत में लीला की मां को बुलाकर यह पहेली सुलझाई गई। इसके साथ ही मेरा शाकाहारी भोजन भी खत्म हो गया।”
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