तहव्वुर राणा का मुंबई हमले पर खुलासा
नई दिल्ली: 26/11 मुंबई हमले के मास्टरमाइंड तहव्वुर राणा को भारत लाया जा चुका है। कुछ देर पहले ही उसे लेकर स्पेशल विमान दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर लैंड हुआ। जहां से राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने उसे गिरफ्तार करके एनआईए कोर्ट में पेश किया है। राणा फिलहाल एनआईए की कस्टडी में ही रहेगा जहां उससे गहन पूछताछ होने वाली है।
तहव्वुर राणा को अमेरिका से प्रत्यर्पित कर के भारत लाया गया है। जिससे उसका प्रत्यर्पण चर्चा की वजह बना हुआ है। प्रत्यर्पण के दौरान कुछ संधियां होती हैं। जिसके चलते तमाम लोगों के मन में यह सवाल है कि आखिर तहव्वुर के साथ भारत कैस व्यवहार करेगा? उसके खिलाफ कौन सा केस चलेगा? साथ ही भारत में उसके साथ क्या कुछ नहीं कर सकेगा?
आपको बता दें कि, अमेरिका से भारत लाए जाने के बाद भारत सरकार 1997 की भारत-अमेरिका प्रत्यर्पण संधि के तहत कुछ सख्त नियमों और शर्तों से बंधी हुई है। यह संधि न केवल दोनों देशों के बीच कानूनी सहयोग का प्रतीक है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करती है कि जिस व्यक्ति या वादी को प्रत्यर्पित किया जा रहा है, उसके अधिकारों का सम्मान किया जाए।
संधि का सबसे महत्वपूर्ण पहलू “विशेषता का नियम” है। इसके तहत तहव्वुर राणा को भारत में केवल उसी अपराध के लिए हिरासत में लिया जा सकता है, उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है या उसे दंडित किया जा सकता है, जिसके लिए उसे प्रत्यर्पित किया गया है। अगर भारत सरकार किसी अन्य अपराध के लिए उसके खिलाफ कार्रवाई करना चाहती है तो यह तब तक संभव नहीं होगा।
क्या भारत तहव्वुर राणा को किसी तीसरे देश को सौंप सकता है? इसका जवाब है नहीं, जब तक अमेरिका अपनी स्पष्ट सहमति न दे। संधि के अनुसार, प्रत्यर्पण से पहले राणा को किसी अपराध के लिए किसी तीसरे देश में नहीं भेजा जा सकता। यह शर्त भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख बनाए रखने के लिए भी बाध्य करती है।
प्रत्यर्पण के बाद राणा को भारत में निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार मिलेगा। यह महज औपचारिकता नहीं है, बल्कि भारतीय कानून और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों का एक अनिवार्य हिस्सा भी है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि राणा के खिलाफ कोई पक्षपात न हो और उसकी कानूनी प्रक्रिया पारदर्शी बनी रहे। यह नियम भारत की न्यायिक प्रणाली पर भी बड़ी जिम्मेदारी डालता है।
प्रत्यर्पण की प्रक्रिया सस्ती नहीं है। संधि के तहत, अनुरोध करने वाला देश यानी भारत आमतौर पर इस प्रक्रिया का खर्च वहन करता है। हालांकि, दोनों देशों के बीच विशेष वित्तीय समझौते भी हो सकते हैं। राणा के मामले में यह देखना दिलचस्प होगा कि यह खर्च कितना बड़ा होगा और इसका बोझ कैसे उठाया जाएगा।
भारत को अपने कानूनों का पालन करना होगा, जिनमें सबसे प्रमुख है 1962 का प्रत्यर्पण अधिनियम। यह अधिनियम प्रत्यर्पित व्यक्तियों से निपटने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। नियमों में किसी भी तरह की लापरवाही या विचलन की कोई गुंजाइश नहीं है, अन्यथा भारत की अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकता है।
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तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण न केवल कानूनी मसला है, बल्कि भारत-अमेरिका संबंधों की मजबूती का सबूत भी है। लेकिन साथ ही यह भारत के लिए एक चुनौती भी है। चुनौती इसलिए है क्योंकि भारत को कानूनी बाध्यताओं का पालन करते हुए अपनी न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष रखना होगा। देखना यह है कि भारत इन शर्तों को किस तरह लागू करता है और राणा के मामले में आगे क्या कदम उठाता है।