राम गोपाल अग्रवाल (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: स्वतंत्रता के 15 वर्ष बीत चुके थे…भारत चीन से युद्ध की त्रासदी से उबरा भी नहीं था कि उसके सामने पाकिस्तान से दूसरी जंग की चुनौती आ गई। और यह बात तो जगजाहिर है कि युद्ध की विभीषिका बर्बादी की परिचायक होती है। ऐसा ही कुछ भारत में भी देखने को मिला। उपर से देश को सूखे का भी दंश लग गया। भारत की जनता दाने-दाने को मोहताज हो रही थी। जिसके चलते अमेरिका से गेहूं का आयात करना पड़ा।
लेकिन संकट के समय में कुटिल अमेरिका ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत को उसने सड़ा हुआ गेहूं दे दिया। जिसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश की जनता से एक टाइम का उपवास रखने की अपील की और ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दे दिया। इस नारे ने देश के करोड़ों लोगों को प्रभावित किया।
इस नारे ने जिन पर असर डाला उनमें दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से ग्रेजुएट होकर निकला वो युवा भी शामिल था जिसका परिवार उस दौर में कपड़े के कारोबार से जुड़ा हुआ था। उस शख्स ने किसानों की हालत और देश में खाद्यान्नी की कमी को देखते हुए पुश्तैनी कामकाज छोड़कर किसानों के लिए अपना जीवन खपाने की ठान ली।
जिस शख्स की हम बात कर रहे हैं उसका नाम था राम गोपाल अग्रवाल! इस कहानी को तकरीबन सात दशक बीत चुके हैं। लेकिन उनके जेहन में आज भी वह मंजर ताज़ा है जब अमेरिका ने भारत की जनता को कीड़ा-मकोड़ा समझकर सड़ा हुआ लाल गेंहू भेजा था। तभी अग्रवाल ने तय कर लिया कि वह कपड़ों के पुश्तैनी बिजनेस को छोड़कर खेती-किसानी के लिए काम करने का फैसला कर लिया।
आज इंडस्ट्री राम गोपाल अग्रवाल को शॉर्ट फॉर्म में आरजी अग्रवाल के नाम से भी जानती है। धानुका कंपनी के मालिक अग्रवाल इंडस्ट्री के बड़े नामों में से एक हैं। जब हम कीटनाशकों की बात करते हैं, तो धानुका की बात करते हैं…और जब धानुका की बात करते हैं, तो आरजी अग्रवाल की बात करते हैं।
अपनी कहानी बयां करते हुए अग्रवाल ने कहा कि ‘सोमवार को होटल और रेस्टोरेंट बंद रहते थे। सभी लोग व्रत रखते थे। शास्त्री जी बहुत कुछ करना चाहते थे। लेकिन उनका निधन हो गया। मैं उनके विचारों से प्रभावित था। मैंने घरवालों से कहा कि मैं खेती से जुड़ा कुछ करना चाहता हूं। विरोध हुआ, लेकिन चूंकि मैंने तय कर लिया था, इसलिए इससे दूर जाने का कोई मतलब नहीं था।’
आरजी अग्रवाल बताते हैं कि मुझे विदेशों से खाने के लिए भीख मांगना बहुत बुरा लगता था। वह भी ऐसा अनाज, जिस पर आज की तारीख में लोग भरोसा नहीं कर सकते। इसकी क्वालिटी इतनी खराब हुआ करती थी। ऐसे में कई लोग आगे आए। उस दौर में सरकार ने प्राइवेट सेक्टर के लिए फर्टिलाइजर की शुरुआत की।
भारतीय किसान (सोर्स- सोशल मीडिया)
उन्होंने आगे कहा कि उत्तर भारत में लोग इसका इस्तेमाल करने से कतराते थे, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं जमीन खराब न हो जाए। दक्षिण भारत में इसकी मांग थी। हमने कुछ जगहों पर इसका इस्तेमाल किया। उपज डेढ़ से दो गुना बढ़ गई। हमने दक्षिण भारत में ज्यादा खाद बेची।’ दरअसल, पहला ऑफिस भी हैदराबाद में ही खोला गया था। चालीस साल पहले, 1974 में। अग्रवाल यहीं नहीं रुकना चाहते थे।
उन्होंने गुड़गांव में एक फैक्ट्री खरीदी, जो 1960 में शुरू हुई, लेकिन घाटे के कारण बंद हो गई। इसे 1980 में खरीदा गया और आरजी अग्रवाल के मुताबिक, कंपनी के औद्योगिक विकास की कहानी यहीं से शुरू होती है। वे यह भी कहते हैं कि हमारे लिए औद्योगिक अनुभव 1980 से अब तक का है, यानी करीब 45 साल।
अग्रवाल हैदराबाद का ऑफिस अपने छोटे भाई को सौंपकर दिल्ली आ गए थे। दिक्कतें थीं, लाइसेंस राज था। आयात शुल्क 150 फीसदी तक था। विदेशियों का एकाधिकार था। लेकिन इन चुनौतियों के बीच भी उन्होंने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी और 1985 में उन्होंने पहली पब्लिक लिस्टेड कंपनी शुरू की, जिसे आज हर कोई जानता है- धानुका पेस्टीसाइड लिमिटेड।
इसका तकनीकी प्लांट लगाया गया। 1992 में वे ड्यूपॉन्ट को भारत लेकर आए। अग्रवाल कहते हैं, ‘चौथे साल में ही इसका वॉल्यूम 10 लाख लीटर हो गया। इस उत्पाद को खरीदने के लिए कतार लग गई।’ यह वो दौर था जब पीवी नरसिम्हा राव की सरकार आई और देश ने ओपन इकोनॉमी की ओर कदम बढ़ाया। इस कदम ने उद्योगों के लिए क्रांति ला दी।
किनारी बाजार के एक परिवार से निकले और गुड़गांव के ऑफिस में बैठे आरजी अग्रवाल जब अपनी कंपनी की कहानी बताते हैं तो उनकी आंखों की चमक उनकी सफलता को बयां करती है, ‘जब हमने फैक्ट्री खोली तो कोई लोन देने को तैयार नहीं था। हमने प्राइवेट प्लेयर्स से ऊंचे ब्याज पर पैसे जुटाए। आज दस बैंक लोन देने के लिए मेरे इर्द-गिर्द चक्कर काटते हैं।’
परिवार के साथ रामगोपाल अग्रवाल (सोर्स- सोशल मीडिया)
उन्होंने बताया कि एक समय शेयर की कीमत दो रुपए थी, जो बाजार में हाल ही में आई उथल-पुथल से पहले 1800 रुपए पर पहुंच गई थी। इसी तरह उन्होंने 27 साल पहले फार्मा में काम करना शुरू किया, ‘मानेसर में यूनिट लगाई। चार साल पहले चेन्नई की ऑर्किड फार्मा को अपने कब्जे में लिया। इतने कम समय में इसे कर्ज मुक्त कंपनी बना दिया। शेयर की कीमत जीरो से 1800 पर पहुंच गई।’
अग्रवाल कीटनाशकों के खतरों को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वैज्ञानिक तरीके से और पूरी सुरक्षा के साथ करना चाहिए। इसका सही मात्रा में इस्तेमाल करना जरूरी है। इसीलिए कंपनी की ओर से किसानों को सलाह देने के लिए कंपनी के पास दो कॉल सेंटर हैं।
उन्होंने ड्यूपॉन्ट से जुड़ने के समय का एक किस्सा बताते हुए कहा कि ‘अमेरिकन कैटरपिलर नाम का एक कीट होता है, जिस पर किसी कीटनाशक से नियंत्रण नहीं हो रहा था, जो हमने तैयार किया था, वह जहरीला था। हमारे लोग डेमो करते थे। हम पेड़ों पर इसका छिड़काव करते थे, नीचे अखबार बिछाते थे। पेड़ों से कीट गिर जाते थे। लेकिन उस कीटनाशक के लिए सावधानी बरतनी पड़ती थी। ड्यूपॉन्ट ने मास्क अनिवार्य कर दिया था। लेकिन किसान उसका उपयोग नहीं करते थे। उन्हें चक्कर आते थे। कई लोगों को अस्पताल जाना पड़ता था। इसलिए सावधानी बहुत जरूरी है।
उनका कहना है कि जिस तरह से आबादी के साथ कृषि भूमि कम होती जा रही है, नई तकनीक के बिना सभी को खिलाने लायक उत्पादन करना संभव नहीं है। इसलिए जरूरी है कि नई तकनीक अपनाई जाए, सामूहिक मार्केटिंग की जाए, ताकि फसलों का सही दाम मिले। बिना बिल के कोई भी उत्पाद न खरीदें, गुणवत्ता वाले उत्पाद खरीदें, ताकि फसलों और जमीन को नुकसान न हो।
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अब आरजी अग्रवाल आधिकारिक तौर पर रिटायर हो चुके हैं। बेटा और बहू काम करते हैं, पोता भी उसी क्षेत्र में उतर गया है। जो परिवार 100 साल तक कपड़ों के कारोबार के लिए जाना जाता था, वह आज आरजी अग्रवाल के छह दशक के सफर के बाद कृषि के क्षेत्र में अपने काम के लिए जाना जाता है।
(किसान इंडिया डॉट इन से साभार)