लालू प्रसाद यादव (डिजाइन फोटो)
Siyasat-E-Bihar: बिहार में चुनावी माहौल चरम पर पहुंच चुका है। मुख्य रूप से एनडीए और महागठबंधन के बीच यह चुनावी महासंग्राम लड़ा जाना है। लेकिन इस बार प्रशांत किशोर भी रणनीति छोड़कर राजनीति में उतर चुके हैं। वहीं, असदुद्दीन ओवैसी भी पूरी तरह से तैयार हैं। अब सवाल यह है कि क्या AIMIM मुसलमानों का वोट अपनी तरफ खींच पाने में कामयाब हो पाएगी। जिस तरह से लालू यादव ने यह वोटबैंक कांग्रेस से छीन लिया था। सियासत-ए-बिहार की इस किस्त में कहानी लालू के मुसलमानों का मसीहा बनने की।
सितंबर 1990 में वीपी सिंह ने मंडल आयोग लागू करके देश की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। ओबीसी को आरक्षण देकर उन्होंने पिछड़ी जातियों की एक ऐसी राजनीति की शुरुआत की जिसका 35 साल बाद भी शोषण जारी है। लेकिन वो दौर अलग था; यह एक नया प्रयोग था। वीपी सिंह ने इसे एक मास्टरस्ट्रोक माना। वहीं, पिछड़ी जातियों के पैरोकार बन चुके थे लालू यादव भी उत्साहित थे। उन्होंने बिहार में मंडल आयोग का तहे दिल से स्वागत किया। उन्हें पता था कि पिछड़ी जातियों का एकमत वोट उन्हें सत्ता में बनाए रखेगा।
लेकिन उन दिनों सिर्फ पिछड़ी जातियों के वोटों से सत्ता तक पहुंचना मुश्किल था। किसी और के समर्थन की ज़रूरत थी। सवर्णों में लालू का विरोध हो रहा था, क्योंकि उन्होंने सवर्ण विरोधी राजनीति करके मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी। ऐसे में बिहार के मुसलमान बचे रह गए। अगर उनके वोट मिलते तो 40 फीसदी वोट कहीं नहीं जाने वाला ता। लेकिन सवाल यह था कि ऐसा कैसे हो सकता था? मुसलमान कांग्रेस के साथ थे, तो उन्हें कैसे बदला जा सकता था? लेकिन सियासी खेल में लालू यादव माहिर थे।
जब वीपी सिंह ने मंडल राजनीति शुरू की, उसी समय अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही भाजपा ने भी अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किया और कमंडल की राजनीति शुरू कर दी। यानी 1990 में लड़ाई मंडल और कमंडल के बीच थी। लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से रथ यात्रा शुरू की थी, जिसका लक्ष्य अयोध्या पहुंचकर राम जन्मभूमि पर भगवान राम का एक भव्य मंदिर बनाना। वीपी सिंह इस रथ यात्रा से बेहद असहज थे और ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे थे क्योंकि दिल्ली में उनकी सरकार भाजपा पर निर्भर थी। दिन बीतते गए और आडवाणी की रथ यात्रा उत्तर प्रदेश के करीब आती गई। अयोध्या अब ज्यादा दूर नहीं थी।
लालू प्रसाद यादव (सोर्स- सोशल मीडिया)
इस समय वीपी सिंह के पास अब दो विकल्प थे। या तो वे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए कहते या फिर बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव से ऐसा करने के लिए कहते। वीपी सिंह ने दूसरा विकल्प चुना—इसका कारण पूरी तरह से राजनीतिक था। अगर मुलायम रथ यात्रा रोक देते तो उत्तर प्रदेश के मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ हो जाते और उन्हें धर्मनिरपेक्षता का नया बादशाह घोषित कर देते। वीपी खुद उत्तर प्रदेश से थे, इसलिए वे धर्मनिरपेक्षता का तमगा किसी और के हाथ में नहीं देखना चाहते थे। इसलिए लालू को बिहार में ही आडवाणी की यात्रा रोकने का संकेत दे दिया गया।
लालू पहले से ही दिल्ली से हरी झंडी का इंतज़ार कर रहे थे। हरी झंडी मिलते ही उन्होंने बिहार प्रशासन को सतर्क कर दिया। आपदा प्रबंधन दल पूरी तरह तैयार था, और अगर कोई हिंसा भड़कती, तो तुरंत कार्रवाई की जाती। लालू आडवाणी को पकड़ने का सपना देख रहे थे। कई दिनों से वे कुछ पंक्तियों का अभ्यास कर रहे थे— “अगर इस देश में किसी में इस विनाशकारी रथ यात्रा को रोकने की हिम्मत है, तो वह लालू यादव हैं। लालू यादव अपनी जान जोखिम में डाल देंगे, लेकिन इस देश को फिर से हिंदू-मुसलमानों के बीच नहीं बंटने देंगे।”
22 अक्टूबर 1990 की रात को, लालू यादव ने आडवाणी को गिरफ्तार करने के लिए दो लोगों को नियुक्त किया। एक थे राज कुमार सिंह, जो उस समय बिहार सरकार में सचिव स्तर के अधिकारी थे, और दूसरे थे रामेश्वर आरोन, जो उस समय उप महानिरीक्षक थे। दोनों अधिकारियों को तुरंत समस्तीपुर भेज दिया गया। आदेश स्पष्ट था कि आडवाणी को बिना किसी हंगामे के गिरफ्तार किया जाए और सीधे उन्हें रिपोर्ट किया जाए।
लालू प्रसाद यादव (सोर्स- सोशल मीडिया)
उस रात अधिकारियों ने अथक परिश्रम किया और लालू यादव का सपना आखिरकार साकार हुआ। 23 अक्टूबर की सुबह लालू को आरोन का फोन आया। उन्होंने कहा, “सर, हमने आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया है।” इतना सुनते ही लालू यादव खुशी से उछल पड़े। उन्होंने पहले अपने दोनों अधिकारियों की प्रशंसा की और फिर उन्हें आडवाणी और उनके दल को पटना लाने का आदेश दिया।
लालू जानते थे कि उन्होंने वह कर दिखाया है जो शायद किसी और राज्य का कोई मुख्यमंत्री नहीं कर पाता। उन्होंने न केवल रथ यात्रा रोकी, बल्कि आडवाणी की गिरफ्तारी भी सुनिश्चित की। रातों-रात लालू यादव मुसलमानों के मसीहा बन गए। बिहार का मुसलमान लालू यादव को अपना रक्षक मानने लगा। लालू खुद इस मौके का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहते थे। यही वजह है कि उन्होंने तुरंत सद्भावना रथ पर सवार होकर पटना का दौरा शुरू कर दिया।
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इस दौरान लालू का जनता के लिए एक ही संदेश था, वो ये कि बिहार में सांप्रदायिक तनाव फैलाने की हिम्मत किसी को नहीं करनी चाहिए। याद रखिए, ऐसे लोगों से सख्ती से निपटा जाएगा। मैंने आडवाणी को गिरफ्तार करने का साहस किया है। सज़ा में किसी को बख्शा नहीं जाएगा। लालू का मुसलमानों के लिए भी एक अलग संदेश था। उनके पास उन्हें हमेशा के लिए अपने पाले में करने के लिए दिल को छू लेने वाले संदेश तैयार थे। पिछड़े वर्ग भी उनके नियंत्रण में थे।
अपने अनोखे अंदाज़ में उन्होंने कहा, “यह सरकार, यह सत्ता, यह राज्य, यह सब तुम्हारा है। अब तक तुम्हें तुम्हारा हिस्सा नहीं मिल रहा था, सत्ता में बैठे लोगों को तुम्हारी परवाह नहीं थी। उन्होंने तुम्हें बेसहारा और अकेला छोड़ दिया था। लेकिन अब तुम्हारा आदमी सत्ता में है। मैं यहां का मुख्यमंत्री हूं, मैं तुम्हें वो सब कुछ दूंगा जो तुम्हें कभी किसी ने नहीं दिया। मैं तुम्हें सत्ता की ताकत दूंगा, राजा की तरह जीने की आज़ादी दूंगा। तुम्हें डरने की ज़रूरत नहीं है, सिर ऊंचा करके चलना शुरू करो।
उस दिन से लेकर आज तक राजद सत्ता में रहे या न रहे मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उनकी पार्टी के साथ बना हुआ है। कांग्रेस का पूरा वोट बैंक यहां शिफ्ट हो गया है। यही लालू की ताकत और यही उनकी खासियत थी। वो राजनीतिक माहौल को समझते थे, उन्हें पता था कि कहां और कौन सी बात फायदेमंद होगी। हालांकि, अब असदुद्दीन ओवैसी RJD के मुस्लिम वोटबैंक में सेंधमारी की कोशिश में जुटे हुए हैं। देखना होगा कि कि कितना कामयाब होते हैं।