बिल क्लिंटन (फोटो- सोशल मीडिया)
Bill Clinton Birthday: अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में भारत पर ये कहते हुए 50 फीसदी का टैरिफ लगा दिया कि, भारत रूस से तेल खरीदता और रूस उन पैसों से हथियार खरीदकर यूक्रेन में मासूमों की जान लेता है। वहीं, वही अमेरिका इजराइली सैनिकों द्वारा गाजा में भूख से तड़प रहे फिलिस्तीनों की मौत पर आंख मूंद लेता है। लेकिन ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति नहीं है, बल्कि उनसे पहले एक और राष्ट्रपति ऐसे थे जिन्होंने तीन दशक पर मौत के साए में जी रहे दस लाख लोगों की मदद सिर्फ इसलिए नहीं की। क्योंकि वो अपने हाथ गंदे नही करना चाहता था। हम बात कर रहे हैं अमेरिका के 42वें राष्ट्रपति बिल क्लिंटन। आइए आपको बताते हैं पूरी कहानी…
रवांडा में दो मुख्य जातीय समूह रहते हैं हुतु और तुत्सी। तुत्सीयों को अल्पसंख्यक माना जाता है लेकिन शुरू से सत्ता की चाबी उनके ही पास रही है। अल्पसंख्यक के बाद भी उन्हें सालों विशेषाधिकार प्राप्त थे, वहीं, हुतु जो संख्या में तो ज्यादा थे लेकिन उन्हें उस दौर में सरकारी नौकरी तक नहीं मिलती थी। ऊपर तुत्सी समुदाय के लोगों के अत्याचार से हुतु अंदर ही अंदर गुस्से में थे। यह गुस्सा उस वक्त भड़क उठा जब 6 अप्रैल 1994 को राष्ट्रपति जुवेनेल हब्यारिमाना की विमान दुर्घटना में मौत हो गई। हुतु चरमपंथियों ने तुत्सी और उदारवादी हुतुओं को मारना शुरू कर दिया।
रवांडा नरसंहार का पीड़ित (फोटो- सोशल मीडिया)
ऐसा नहीं था कि इस हिंसा को रोका नहीं जा सकता था। यूनाइटेड नेशन की पीस कीपिंग फोर्स के हजारों सैनिक उस समय रवांडा में तैनात थे। जिसमें अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों की सेना के सैनिक थे। यूनाइटेड नेशन चाहता तो सैना को आदेश देकर हिंसा को रोक सकता था, लेकिन यूएन ने ऐसा नहीं किया। क्योंकि इसके लिए बिल क्लिंटन तैयार नहीं थे। उन्होंने उस समय रवांडा में जो कुछ भी हो रहा था उसे नरसंहार मानने से ही इनकार कर दिया।
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दरअसल क्लिंटन को याद था मोगादिशु, अक्टूबर 1993 वो साल जब 18 अमेरिकी सैनिकों की मौत, और टेलीविजन पर उनके शवों को घसीटती भीड़। वह डर व्हाइट हाउस के हर फैसले पर मंडरा रहा था। इसके बाद क्लिंटन प्रशासन ने तय कर लिया था। अफ्रीका में अब कोई सैन्य जुआ नहीं खेलना। इसलिए, रवांडा में मदद की फाइल पर मुहर लगाने से पहले ही, आदेश आ गया “यूएन मिशन छोटा करो, सैनिक वापस बुलाओ।” इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका के साथ बाकी देशों ने अपने सैनिकों को रवांडा से बाहर निकाल लिया।
रवांडा नरसंहार (फोटो- सोशल मीडिया)
जब रवांडा में खून बहना शुरू हुआ, तो अमेरिकी विदेश विभाग में एक सर्द खेल खेला गया। किसी भी दस्तावेज़ या बयान में “नरसंहार” शब्द का इस्तेमाल नहीं होगा। कारण? क्योंकि एक बार यह शब्द बोले जाने पर, अमेरिकी कानून के तहत हस्तक्षेप अनिवार्य हो जाता। “We Wish to Inform You That Tomorrow We Will Be Killed With Our Families” में फिलिप गॉरेविच लिखते हैं यह सिर्फ चुप्पी नहीं, बल्कि सुनियोजित शब्द-हेरफेर था, ताकि खून की गंध वॉशिंगटन तक न पहुंचे।
हफ्तों बाद, जब हुतू मिलिशिया अपना ‘काम’ लगभग पूरा कर चुके थे, तब अमेरिका ने राहत सामग्री भेजी पानी के टैंक, टेंट, कुछ दवाइयाँ। रोमियो डैलेयर के शब्दों में “वे तब आए, जब हमारे लोग पहले ही दफन हो चुके थे।” उस समय रवांडा में 100 दिन के अंदर 8 से 10 लाख लोगों की मौत हुई थी।
कब्रिस्तान जहां मारे गए लोगों को दफनाया गया (फोटो- सोशल मीडिया)
चार साल बाद, 1998 में, बिल क्लिंटन किगाली पहुंचे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह शांत, नियंत्रित मुस्कान थी, जहां उन्होंने अपनी गलती मानते हुए कहा कि,“हमने पर्याप्त तेजी से कार्रवाई नहीं की।हमने इन अपराधों को तुरंत उनके सही नाम से नहीं पुकारा”। यह किसी अपराधी के न्यायालय में पछतावे जैसा नहीं था। यह उस खिलाड़ी का बयान था जिसने खेल जीतने के बाद दर्शकों से माफी मांगी।
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इतिहासकार कहते हैं, रवांडा ने हमें यह सिखाया कि खलनायक हमेशा बंदूक लेकर नहीं आता। कभी-कभी वह सूट पहनकर आता है, कूटनीतिक भाषा बोलता है, और मुस्कुराते हुए कहता है। हम कुछ नहीं कर सकते। क्लिंटन की चुप्पी और निष्क्रियता ने साबित कर दिया कि राजनीतिक सुरक्षा, मानवीय जिम्मेदारी से भारी पड़ सकती है। पूरे दुनिया ने इसे खामोशी से ही सही नरसंहार माना, लेकिन आज भी अमेरिका के किसी अधिकारी दस्तावेज में इसे नरसंहार नहीं लिखा गया है। इतिहास में यह घटना उनके राष्ट्रपति कार्यकाल के सबसे अंधेरे अध्याय के रूप में दर्ज है। जहां इंसानियत के बजाय राजनीति जीती, और खलनायक का चेहरा मुस्कुराता रहा।