पाकिस्तान के लाहौर और इस्लामाबाद में तहरीक-ए-लब्बैक का आतंक (फोटो- सोशल मीडिया)
Pakistan Tehreek-e-Labbaik Protest Explained: पाकिस्तान आज अपने ही बुने जाल में फंसकर रह गया है। लाहौर की जलती सड़कें और किले में तब्दील राजधानी इस्लामाबाद इस बात की गवाही दे रहे हैं कि पाकिस्तान के लिए जो गड्ढा दूसरों के लिए खोदा गया था, उसमें वह खुद ही गिर पड़ा है। इस पूरी तबाही और हिंसा के पीछे कट्टरपंथी संगठन तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (TLP) का हाथ है, जिसे कभी खुद पाकिस्तानी फौज ने बड़े प्यार से पाला-पोसा था। अब यही ‘प्यारा’ संगठन भस्मासुर बन चुका है।
दिलचस्प बात यह है कि 2015 में बने इस संगठन को खुद पाकिस्तानी सेना ने अपनी घरेलू राजनीति साधने के लिए खड़ा किया था। लंदन में रहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता आरिफ आजकिया के अनुसार, “टीएलपी, लश्कर-ए-तैयबा की तरह ही पाक आर्मी का ही बनाया हुआ संगठन है।” मकसद था नागरिक सरकारों पर दबाव बनाने के लिए एक सड़क छाप ताकत तैयार करना। लेकिन अब सेना का बनाया यही हथियार उसे ही काटने दौड़ रहा है, जिससे पूरा पाकिस्तान अस्थिरता की आग में झुलस रहा है।
पाकिस्तानी फौज का दोहरा चरित्र किसी से छिपा नहीं है। जब भी तहरीक-ए-लब्बैक जैसे संगठन हिंसा करते हैं, तो सेना खुद ‘बिचौलिए’ की भूमिका में आ जाती है और सरकार पर इन कट्टरपंथियों से समझौता करने का दबाव बनाती है। 2017 में जब टीएलपी ने इस्लामाबाद को 21 दिनों तक बंधक बना लिया था, तब एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी को प्रदर्शनकारियों में पैसे बांटते हुए देखा गया था। इस घटना से साफ पता चलता है कि यह सब एक सोची-समझी साजिश थी, जिसके कारण तत्कालीन कानून मंत्री जाहिद हामिद को इस्तीफा देना पड़ा था।
टीएलपी का इस्तेमाल सिर्फ सड़कों पर ही नहीं, बल्कि चुनावों में भी किया गया। इंडियन काउंसिल ऑन ग्लोबल रिलेशंस की रिपोर्ट बताती है कि 2018 के चुनावों में आईएसआई के इशारे पर टीएलपी ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के वोट काटे, ताकि इमरान खान की जीत का रास्ता साफ हो सके। बाद में, 2021 में खुद इमरान खान की सरकार ने टीएलपी के सामने घुटने टेक दिए। जब टीएलपी प्रमुख साद रिजवी को गिरफ्तार किया गया, तो संगठन ने हिंसक मार्च निकाला।
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सेना की मध्यस्थता के बाद इमरान सरकार ने न सिर्फ टीएलपी पर से प्रतिबंध हटाया, बल्कि रिजवी समेत 2000 से ज्यादा कार्यकर्ताओं को रिहा कर दिया। पाकिस्तान-अधिकृत कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता अमजद अयूब मिर्जा कहते हैं, “आज जो अराजकता दिख रही है, वह धर्म को हथियार बनाने के दशकों का अपरिहार्य परिणाम है।” यह कहानी उस फ्रैंकनस्टाइन जैसी है जिसका बनाया राक्षस अब उसे ही खत्म करने पर तुला है।