पाकिस्तान में हार को जीत बताया जा रहा (फोटो- सोशल मीडिया)
इस्लामाबाद: पाकिस्तान एक बार फिर एक ऐसी राह पर खड़ा है जहां लड़ाई का शोर लोकतंत्र की हर आवाज को दबा दे रहा है। सैन्य हार, राजनीतिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच, एक नाम फिर उभरकर सामने आया वो है पाक आर्मी जनरल आसिम मुनीर। एक ऐसा जनरल जिसने बढ़ी ही चतुराई से अपनी हार को अपनी जीत में बदल लिया है। जो जंग में पीछे रहा, लेकिन अपने जबरजस्त जनसंपर्क और धार्मिक सिद्धांतो का इस्तेमाल करके नायक बन बैठा। इस युद्ध से पाक को भले ही रत्ती भर कुछ भी हासिल नहीं हुआ हो लेकिन युद्धविराम के बाद पाकिस्तान इसे जनता के सामने जीत की तरह पेश करने में पूरी तरह लगा हुआ है। वहीं मुनीर ने खुद को सिर्फ एक सेना प्रमुख नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र का प्रतीक बनाने का पूरा प्रयास किया है।
वक्त के साथ अब पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से कमजोर होती गई है। एक ओर आर्थिक हालात जर्जर हो चले हैं, दूसरी ओर सैन्य दखल लगातार बढ़ता गया। चुनावों की साख सवालों में है और इमरान खान जैसे लोकप्रिय नेता जेल में हैं। ऐसे में जब भारत के साथ तनाव चरम पर पहुंचा, तब सैन्य हमले और उनके जवाबों ने फिर सेना को केंद्रीय भूमिका में ला दिया। लेकिन असल जीत तो उस जनरल की हुई जिसने युद्ध को अपने वापसी का जरिया बना लिया।
युद्ध नहीं, नेतृत्व की जीत बताने की कोशिश
पाकिस्तान की सेना फिर एक लड़ाई हार ही गई, लेकिन जनरल आसिम मुनीर ने उस हार को खुद की जीत में बदल दिया। भारत के जवाबी हमलों ने पाक की सैन्य शक्ति की सच्चाई उजागर कर दी। लेकिन जनरल मुनीर ने इसे एक भावनात्मक अभियान में बदल दिया, जहां सेना फिर राष्ट्र की रक्षक बनकर उभरी। मीडिया, धार्मिक भाषण और रणनीतिक संवादों ने उनकी छवि को ऐसा गढ़ा कि वे सिर्फ सेनापति नहीं, राष्ट्रनायक भी बन बैठे। इस बार भी युद्ध नहीं जीता गया, लेकिन सेना की साख जरूर बचा ली गई।
लोकतंत्र फिर पीछे, मुनीर आगे
पाकिस्तान में एक बार फिर लोकतंत्र पीछे छूट गया। इमरान खान की पार्टी पर प्रतिबंध, चुनावों में धांधली और विरोधियों की गिरफ्तारी के बीच सत्ता का केंद्र पूरी तरह से सैन्य ताकत के इर्द-गिर्द घूमने लगा। जनरल मुनीर ने इस मौके को भांपते हुए खुद को धार्मिक आभा से जोड़ लिया। कुरान की आयतों से भाषण और जिहाद के संदर्भ ने उन्हें न सिर्फ एक सैन्य नेता बल्कि एक धार्मिक प्रतीक बना दिया। इस चतुराई ने उन्हें न केवल प्रासंगिक बनाए रखा बल्कि उन्हें देश का ‘अंतिम विकल्प’ भी बना दिया।