बावन इमली के पास बना स्मारक स्थल, फोटो: सोशल मीडिया
Independence Day Special: “बावन इमली” के नाम से जाना जाने वाला ये पेड़ 52 वीरों की शौर्य गाथा है। लगभग दो सौ साल पहले, इसी पेड़ की डालियों पर अंग्रेज हुकूमत ने एक साथ 52 क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था। एक महीने से भी ज्यादा समय तक उनके शव हवा में झूलते रहे ताकि अंग्रेजी दहशत का संदेश चारों ओर फैले।
ये कहानी है अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके 51 साथियों की। वे लोग, जिनके नाम शायद इतिहास की किताबों में बड़े अक्षरों में न लिखे गए हों लेकिन जिनका बलिदान इस मिट्टी में हमेशा जीवित रहेगा।
1857 के विद्रोह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को पहली चिंगारी मिली। ठाकुर जोधा सिंह अटैया रसूलपुर गांव के राजपूत थे और झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से गहराई से प्रभावित थे। बताया जाता है कि वे गुरिल्ला युद्ध के माहिर योद्धा थे और अपनी तेज रणनीति से कई अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतार चुके थे।
उनके नेतृत्व में क्रांतिकारी दल ने साहसिक लड़ाईयों की श्रृंखला छेड़ दी थी। अंग्रेज अधिकारी कर्नल पावेल की हत्या, रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला, जहानाबाद तहसीलदार को बंदी बनाना और सरकारी खजाने पर कब्जा करने जैसे कई आंदोलन किए। इन कार्रवाइयों से अंग्रेज प्रशासन हिल गया और ठाकुर जोधा सिंह को ‘डकैत’ घोषित कर दिया गया था।
उस समय के अंग्रेजी सेना के कर्नल क्रस्टाइज को इन क्रांतिकारियों को पकड़ने की जिम्मेदारी दी गई थी। कई बार मुठभेड़ों में नाकाम होने के बाद, 28 अप्रैल 1858 को मुखबिर की सूचना ने सब कुछ बदल दिया। खजुहा लौटते समय ठाकुर जोधा सिंह और उनके साथियों को घेर लिया गया और बिना किसी मुकदमे के सजा सुना दी गई मौत।
उसी दिन, खजुहा के विशाल इमली के पेड़ के नीचे अंग्रेज सैनिकों ने 52 फंदे तैयार किए। एक-एक कर, जोधा सिंह और उनके साथियों को इन फंदों पर लटकाया गया। यह दृश्य इतना भयावह था कि लोगों की रूह कांप उठी। कर्नल क्रस्टाइज ने गांव वालों को चेतावनी दी कि अगर किसी ने इन शवों को नीचे उतारा, तो उसका भी यही अंजाम होगा।
अंग्रेजों के डर के मारे तकरीबन 37 दिनों तक उन वीरों के शव उसी पेड़ से झूलते रहे। तपती धूप, बरसती बारिश और सड़ते मांस के बीच, उनकी आत्माएं मानो हवा में आजादी का संदेश फुसफुसाती रहीं।
ठाकुर जोधा सिंह
इसके बाद 3-4 जून 1858 की रात, जब अंधेरा घना था और अंग्रेज चौकस थे, ठाकुर महाराज सिंह अपने 900 साथियों के साथ चुपचाप बावन इमली के पास पहुंचे। सावधानी से एक-एक शव उतारा गया और गंगा किनारे शिवराजपुर घाट पर उनका सामूहिक अंतिम संस्कार किया गया। वह रात आज भी स्थानीय लोगों की स्मृतियों में जिंदा है- वो रात जब डर पर साहस भारी पड़ गया था।
स्थानीय लोग कहते हैं कि जब से यह घटना हुई, तब से यह पेड़ बढ़ना बंद हो गया। मानो वह दिन उसकी आत्मा में ठहर गया हो। यह पेड़ आज भी खड़ा है- बिल्कुल मौन, लेकिन गर्व से सीना ताने, हर उस व्यक्ति को निहारता जो उसके नीचे आकर उस बलिदान को याद करता है। इन 52 वीरों के नाम शायद इतिहास के पन्नों में खो गए हों, लेकिन उनका त्याग मिट्टी, हवा और इस पेड़ की हर पत्ती में दर्ज है। उनकी कहानी हमें याद दिलाती है कि आजादी सिर्फ एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं, बल्कि अनगिनत बलिदानों का परिणाम है।
बावन इमली का पेड़
आसपास के लोग कहते हैं कि जब भी इस पेड़ की डालियों पर निगाह पड़ती है, ऐसा लगता है मानो वे फंदे अब भी हवा में झूल रहे हों और हर झोंके के साथ पुकार रहे हों, “हमने तो अपनी जान दी, अब तुम इस आज़ादी को जिंदा रखना।”