अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: पहली नजर में सोशल मीडिया कंटेंट क्रिएटर शर्मिष्ठा पनोली पर कलकत्ता हाईकोर्ट की टिप्पणी और कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा एक्टर कमल हासन को फटकारना निर्विवाद प्रतीत होते हैं। ऑपरेशन सिंदूर के बाद पनोली ने एक समुदाय विशेष के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की और पैगम्बर मुहम्मद के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग किया, जो कि उन्हें नहीं करना चाहिए था. बाद में उन्होंने अपनी पोस्ट्स को डिलीट कर दिया।
कलकत्ता हाईकोर्ट ने उनसे कहा, ‘देखो, हमें बोलने की आजादी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि आप दूसरों की भावनाओं को आहत करें.’ कमल हासन ने दावा किया था कि कन्नड़ तमिल से निकली हुई उसकी एक शाखा है यानी कन्नड़ अलग व स्वतंत्र भाषा नहीं है। इस पर कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा, ‘आप कमल हासन या जो कोई भी हों, लेकिन आप अवाम की भावनाओं को आहत नहीं कर सकते.’ दोनों अदालतों का आशय स्पष्ट था कि आप तोल-मोलकर बोलें और इस बात का ख्याल रखें कि आपके शब्दों से किसी को तकलीफ़ न पहुंचे।
अगर यह नजीर बन जाती है तो इस देश में सभी बातचीत, चर्चा व बहस का आनंदमय होना आवश्यक हो जाएगा. वक्ताओं, लेखकों व कलाकारों को सावधान व सतर्क रहना होगा कि वह कहीं श्रोताओं को नाराज न कर दें. फिर भी भावनाओं को आहत करने वाली तलवार उनके सिरों पर लटकी रहेगी। खामोश रहना ही सुरक्षा की गारंटी बन जाएगी।
यह सही है कि आपकी आज़ादी वहां खत्म हो जाती है, जहां मेरी नाक शुरू होती है, लेकिन बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत मुश्किल से हासिल किया गया आधुनिक अधिकार है. भावनाओं को आहत करना फिसलन भरी ढलान है, जिसका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के किसी भी प्रयास पर चिंताजनक प्रभाव पड़ता है। अगर संविधान का अनुच्छेद 19 (1) नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को सुरक्षित रखता है तो यह तथ्य भी काबिले-गौर है कि अनुच्छेद 19 (2) में भावनाओं को आहत करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने के उचित व तार्किक कारणों में शामिल नहीं है।
भावनाओं को आहत करना इस आधार पर विषयात्मक है कि जो बात एक व्यक्ति के लिए मनोरंजन या सूचना या वैध आस्था है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए बहुत परेशान करने वाली या झूठ या ईशनिंदा हो सकती है. इस प्रकार के विषयात्मक पक्षपात के चलते राज्य और उसके अंगों जैसे पुलिस व अदालत के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित मामलों को तय करना आसान नहीं है. ऐसे में सिर्फ उसी अभिव्यक्ति को कानून के दायरे में लाया जा सकता है, जो जन अव्यवस्था व हिंसा का कारण बनी हो. भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जो कानून हैं, वह आवश्यक रूप से राज्य से अपेक्षा रखते हैं कि ऐसे मामलों में संयम का परिचय दिया जाए।
साथ ही यह भी जरूरी है कि अदालतें अपने फैसलों में सुसंगत रहें. देखने में आया है कि दो लगभग एक से ही मामलों में एक ही अदालत ने अलग-अलग नज़रिया अपनाया, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने की आशा को कोई विशेष मदद नहीं मिलती है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संपूर्ण नहीं है और वह दूसरों के अधिकारों को आहत करने की कीमत पर नहीं दिया जा सकता।
‘मैं आपकी बात से सहमत नहीं हूं, लेकिन आपको जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है उसे कायम रखने के लिए मैं अपने खून की अंतिम बूंद तक संघर्ष करता रहूंगा.’ यह दार्शनिक बर्टेड रसल के शब्द हैं, जो कह रहे हैं कि लोकतंत्र व प्रगति के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी शर्त है. विचार शब्दों के माध्यम से आसानी से व्यक्त किए जा सकते हैं, लेकिन कभीकभार कला के जरिये अधिक प्रभावी अंदाज से व्यक्त किए जाते हैं, जैसा कि इंग्लैंड के स्ट्रीट आर्टिस्ट बैंकसी अक्सर किया करते हैं।
भारत का संविधान उचित पाबंदियों के साथ सभी नागरिकों को अपने विचार व राय स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार देता है. इसमें न सिर्फ़ मौखिक शब्द शामिल हैं, बल्कि लेख, चित्र, चलचित्र, बैनर आदि के माध्यम भी शामिल हैं. बोलने के अधिकार में न बोलने का अधिकार भी शामिल है. इस अधिकार में मुख्य शब्द ‘उचित’ है.बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि हाल ही में दो हाईकोर्ट्स के जो अवलोकन आए हैं. वह इस शब्द को सीमित करते हैं।
लेख- विजय कपूर के द्वारा