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नवभारत डेस्क: भाजपा ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना ‘एक देश एक चुनाव’ की दिशा में मजबूत कदम बढाते हुए कैबिनेट की मंजूरी के बाद 129 वां संविधान संशोधन बिल लोकसभा में पेश कर दिया। लेकिन संख्याबल की कमी होने के कारण फिलहाल बिल पार्लियामेंट्री जॉइंट कमेटी के पास भेजना पड़ा है।
इसकी अंतिम परिणति क्या होगी फिलहाल यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन यदि सत्ता पक्ष इसे पास करवाने में सफल होता है तो यह भारतीय राजनीति और उसके लोकतांत्रिक चरित्र में बदलाव का एक नया प्रस्थान बिंदु साबित होगा। इसके बाद ही इसके नफा नुकसान का आकलन होगा। फिलहाल तो विपक्ष की मांग के अनुरूप इसके लिये संयुक्त संसदीय समिति गठित होगी।
समिति का गठन विभिन्न दलों के सांसदों की अनुपातिक संख्या के आधार पर किया जाएगा, भाजपा सबसे ज्यादा सांसदों वाली पार्टी है इसलिये समिति का अध्यक्ष भाजपा का होगा और उसके सदस्यों की संख्या भी ज्यादा होगी। बेशक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने वाले इस बिल को इसकी मंजूरी मिल जायेगी। स्पीकर ने पक्ष विपक्ष को यह खुला आश्वासन दे दिया है कि जब यह बिल दुबारा आयेगा तो सभी को अपनी बात रखने, बहस करने का भरपूर मौका दिया जायेगा। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं।
लोकसभा में बिल पेश होने के बाद विपक्ष ने इस पर विरोध जताया और इसे वापस लेने की गुहार तक लगाई, कईयों ने इसके खिलाफ बोला भी। हालांकि इसके विरोध में विपक्ष के तर्क अधिकांशत: सैद्धांतिक हैं। एक देश एक चुनाव के पक्ष में सरकारी तर्क पुख्ता हैं।
देश में बारहोमासी चुनावी मौसम चाहने वाले शायद ही कुछ लोग हों। इसकी अचार संहिता और दूसरे उपक्रम नीतिगत फैसलों में देरी के कारण बनते हैं और विकास की रफ्तार सुस्त होती है, जनता की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा चुनाव में खर्च होता है। अब दिल्ली में, उसके बाद बिहार तो अगले साल असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव तय हैं।
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बार बार चुनाव की खामियां सर्वविदित हैं। एक देश एक चुनाव राजनीतिक स्थिरता, निरंतरता और सुशासन सुनिश्चित करने में मददगार होगा। राज्य सरकारें और प्रशासन बार-बार चुनाव प्रक्रिया में व्यस्त न रहकर विकास के काम देखेंगी, सुरक्षा बलों को भी अपने मूल काम पर ध्यान केंद्रित करने का अवसर मिलेगा।
पार्टियां अनेक लोक लुभावन चुनावी वादे कर व्यर्थ खजाना खाली नहीं करेंगी, काले धन का इस्तेमाल रुकेगा तो भ्रष्टाचार घटेगा। अरबों का चुनावी खर्च नहीं होगा तो आर्थिकी सुधरेगी। शिक्षकों समेत करोड़ों सरकारी कर्मचारी जो चुनावी ड्यूटी निभाते हैं वे इससे निजात पायेंगे। संभव है कि इससे मतदान प्रतिशत भी बढे।
आजादी के बाद 1951 से 1967 के बीच के देश में हर पांच साल में लोकसभा के साथ ही राज्य विधानसभाओं के भी चुनाव होते रहे। प्रस्ताव है कि सभी विधानसभाओं का कार्यकाल अगले लोकसभा चुनाव यानी 2029 तक बढ़ा दिया जाये और फिर एक साथ चुनाव करा लिये जाएं।
नगरपालिका और पंचायत को 5 साल से पहले भंग करने के लिए अनुच्छेद 325 में संशोधन करना पड़ता और कम से कम 15 राज्यों की विधानसभाओं की सहमति चाहिये थी। केंद्र सरकार ने एक देश एक चुनाव की प्रणाली से अभी नगर निगम और पंचायतों को अलग रखने का फैसला किया ताकि संसद और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने के लिए सिर्फ एक नया अनुच्छेद जोड़ना पड़े और विधानसभाओं की सहमति की आवश्यकता न रहे। सरकार ने उन सवालों को भी हल करने का प्रयास किया है कि यदि हंग असेंबली होती है तो क्या होगा अथवा किसी राज्य में सरकार के समय पूरा करने से पहले गिर जाती है तो क्या होगा।
सरकार के इरादे नेक हो सकते हैं, अपने प्रचार माध्यम से वह अपनी बात जनता को समझा सकती है विपक्ष को समझाइश दे सकती है कि वह दलगत राजनीति से ऊपर उठकर एक साथ चुनाव पर विवेकपूर्ण तरीके से विचार करे परंतु उसको चाहिए कि वह साफ करे कि इससे केंद्र का वर्चस्व कैसे नहीं बढ़ेगा और संघीय ढांचा क्यों कमजोर नहीं होगा।
क्षेत्रीय दलों और क्षेत्रीय मुद्दों की महत्ता कम कैसे नहीं होगी। क्या गारंटी कि इसके बाद किसी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता नहीं आएगी और बार बार राष्ट्रपति शासन की नौबत नहीं आयेगी। एकसाथ चुनावों के लिये इतने ईवीएम और मशीनरी कैसे तैयार होगी और एक बार चुनाव निबटने के बाद चुनाव आयोग पांच साल क्या करेगा?
लेख- संजय श्रीवास्तव द्वारा