गणेशोत्सव में गूंजे पुकार (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘निशानेबाज, हमारा देश उमंग-उल्लास से भरा और उत्सवप्रिय है।घर-घर गणपति विराजे हैं।सार्वजनिक गणेश मंडलों की तादाद भी पहले से बढ़ी है। भक्ति भावना का सैलाब फूट पड़ा है।बैंड-बाजे और डीजे के शोर में नाचते-गाते युवा गणपति बाप्पा को स्थापना के लिए मंडप में लाए।धर्म में राजनीति भी पनपने लगी है।नेताओं के लिए कार्यकर्ताओं को जुटाने का यह अच्छा मौका है।स्थानीय निकाय चुनाव के लिए उनकी बड़ी तादाद में जरूरत पड़ेगी।इसलिए गणेशोत्सव मंडलों में काफी बड़ी रकम खर्च करते हुए कार्यकर्ताओं को खुश किया जा रहा है।उनका उत्साह बढ़ाया जा रहा है।’
हमने कहा, ‘गणेशोत्सव में भव्यता तो बढ़ रही है लेकिन महाराष्ट्र के कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या अभी भी जारी रहना दुखद है।क्या गणेशोत्सव पर किए जानेवाले करोड़ों के खर्च का एक हिस्सा किसानों को राहत देने के लिए अलग नहीं रखा जा सकता? सामाजिक कर्तव्य के नाते ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है? महाराष्ट्र में गणेशोत्सव प्रारंभ करनेवाले लोकमान्य तिलक भी तो चाहते थे कि इस निमित्त संगठित होनेवाले युवक राष्ट्र चेतना के साथ रचनात्मक सामाजिक कार्य करने में जुट जाएं.’ पड़ोसी ने कहा, ‘निशानेबाज, समाज में पहले भी गरीबी-अमीरी का अंतर रहा है।पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं रहतीं।
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किसानों की समस्या दूर करने के लिए सरकार को ध्यान देना होगा।गणेशोत्सव की भव्यता, धूमधाम, बैंड-बाजा, नाच-गाने में कटौती क्यों की जाए? युवा शक्ति नेताओं के इशारे पर नाचेगी या समाजसेवा करेगी? उसे जिसमें शुभ-लाभ नजर आएगा वही करेगी।गणेशोत्सव के बौद्धिक, सांस्कृतिक कार्यक्रम कहां लुप्त हो गए? मोबाइल व लैपटॉप की आभासी दुनिया में डूबे युवाओं की दुनिया अलग है।ऐसे आत्मकेंद्रित युवाओं को सामाजिक सरोकार और गरीबों की मदद की प्रेरणा सिर्फ गणपति बाप्पा ही दे सकते हैं।’
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा