(डिजाइन फोटो)
पड़ोसी ने हमसे कहा, “निशानेबाज, खबर है कि महंगाई के चलते गरीब की थाली भी अब 32 रुपए से ज्यादा में आ रही है जबकि एक दिन में 2 जीबी इंटरनेट डाटा 13 रुपए से भी कम में मिल रहा है। इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?”
हमने कहा, “खाने की थाली में आटे से बनी रोटी होती है और आटे का महत्व हमेशा से रहता आया है। लोग किसी मोटे- ताजे व्यक्ति से पूछते हैं- आखिर किस चक्की का आटा खाते हो भाई ? आटा मोटा या बारीक पीसा जाता है। किसी को धमकी देते हुए कहा जाता है- मुझसे पंगा मत लेना, आटे-दाल का भाव याद दिला दूंगा। बोलचाल में कोई भी कहता है- आटा पिसाने जा रहा हूं। यह वाक्य तथ्यात्मक दृष्टि से गलत है। आटा तो पहले ही पिसा-पिसाया रहता है, उसे फिर से थोड़े ही पीसा जाएगा! इसलिए कहना चाहिए कि गेहूं, ज्वार, मक्का, बाजरा, चना पिसवाने चक्की जा रहा हूं।”
पड़ोसी ने कहा, “निशानेबाज, हम बचपन में 2 पैसा सेर के हिसाब से आटा पिसवाते थे लेकिन अब 1 किलो पिसवाने के 6 रुपए देने पड़ते है। बिजली महंगी हो गई है। चक्की चलानेवाले नौकर की तनख्वाह भी बढ़ गई है। देश की तरक्की के साथ रुपए का वैल्यू भी कम हो गया है। लोग गरीबी में आटा गीला होने की शिकायत करते हैं। कहते हैं कि जब द्रोणाचार्य गरीब थे तो उनकी पत्नी अपने बेटे अश्वत्थामा के दूध मांगने पर उसे पानी में आटा घोलकर पिला दिया करती थी।”
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हमने कहा, “खबर यह भी है कि विभिन्न कंपनियों का जो रेडीमेड आटा लोग खरीदकर लाते हैं, वह हानिकारक होता है, उसमें प्रिजर्वेटिव मिलाए जाते हैं। इसकी बजाय गेहूं को चक्की पर ले जाकर पिसवाना और ताजा आटा इस्तेमाल करना हमेशा अच्छा होता है। जब बिजली उपलब्ध नहीं थी तो महिलाएं घर में पत्थर की चक्की पर आटा पीसा करती थीं। इससे उनकी एक्सरसाइज हो जाती थी। तब कुएं से पानी खींचना, सिल पर मसाला पीसना, उखली में कूटना, मथानी से दही को बिलोना ऐसे व्यायाम थे जिनसे स्वास्थ्य अच्छा रहता था। इस चर्चा को यह कहकर समाप्त करेंगे कि स्टील में टाटा, जूतों में बाटा, आटा महंगा, सस्ता है डाटा !”
लेख चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा