स्वच्छता अभियान ( सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन यानी 2 अक्टूबर 2025 तक भारत सरकार एक नया स्वच्छता पखवाड़ा ‘स्वच्छोत्सव’ मना रही है।सरकार ने इस उत्सव के जरिए पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार के राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की तमाम पहल और उपलब्धियों का खाका खींचा है, तो दूसरी तरफ अगले 5 वर्षों के लिए स्वच्छता अभियान का एक नया रोडमैप जारी किया है।इस अभियान में सबसे ज्यादा जोर ग्रामीण इलाकों के करीब 40 फीसदी शौचालयविहीन घरों में सरकारी सब्सिडी से शौचालय निर्माण पर जोर दिया गया था।
सरकार के बजट आवंटन में में बढ़ोतरी तथा देश के वीआईपी वर्ग द्वारा खुद हाथ में झाडू लेकर सफाई करने की पोस्चरिंग की एक तरह से होड़ लग गई थी।2014 से 2019 के बीच ग्रामीण शौचालयों के निर्माण की बात करें तो भ्रष्टाचार और निर्माण क्वालिटी की कमी के बावजूद 11 करोड़ शौचालयों का निर्माण किया गया।पिछले 6 वर्षों में कितने नए शौचालय बने और वास्तव में कितने गांव हकीकत में ओडीएफ मुक्त बने, इसे लेकर कोई नया सरकारी सर्वेक्षण नहीं है।ओडीएफ प्लस राज्यों में असम, त्रिपुरा, कर्नाटक, सिक्किम तथा केंद्र शासित प्रदेशों में लक्षद्वीप, पुड्डुचेरी तथा अंडमान के 96 प्रतिशत गांव शामिल हैं।
हकीकत ये है कि ग्रामीण इलाकों में कई जगह अभी भी महिलाएं खुले में शौच करने जा रही हैं।जिनके पास अपनी जमीन पर घर निर्मित हैं वे सरकार की सब्सिडी लेकर शौचालय का निर्माण कर लेते हैं।मगर गांवों में जिनके घर सड़क किनारे बने हैं, जिनके पास अपने आवास का पट्टा नहीं है, वे शौचालय नहीं बना पाए।अभियान के तहत घरेलू शौचालय निर्माण को तवज्जो दी गई।मगर पंचायत, नगरपालिका और कस्बों में पब्लिक टॉयलेट के अधिकाधिक निर्माण और उनके रखरखाव को उतनी प्राथमिकता नहीं मिली।
देश में थर्ड पार्टी के जरिए पब्लिक टॉयलेट की सफाई या निजी स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा इनका मेंटेनेंस एक न्यूनतम निर्धारित शुल्क आधारित किया जाए और इस पर कोई राष्ट्रीय नीति बनाई जाए तो स्वच्छता को लेकर एक बेहतर ढांचा बनाया जा सकता है।देश के करीब 5 हजार नगरपालिका शहरों, करीब 750 जिलों तथा करीब 50 बड़े नगर व महानगरों में पब्लिक टॉयलेट की दशा सुधारने की महती चुनौती है, जिसे लेकर बेहतर जनचेतना, ज्यादा बजट आवंटन, नीतिगत स्पष्टता तथा सार्वजनिक अनुशासन की अभी भी देश में पुरजोर आवश्यकता है।स्वच्छता अभियान का एक दूसरा बिंदु है घरेलू और सार्वजनिक सफाई के कचरे का पहले संग्रहण, फिर इसकी डम्पिंग और फिर इसका प्रसंस्करण।इन मामले में देखा जाए तो नए स्वच्छता अभियान के तहत पिछले 10 वर्षों में कचरा ढोने वाली मिनी गाड़यिां स्वच्छता गीत के साथ खूब दिखाई पड़ती हैं.
देश के बड़े-बड़े महानगर बल्कि राजधानी दिल्ली में भी रोज के लाखों टन कचरे को कैसे ठिकाने लगाएं, सरकारें अभी तय नहीं कर पा रही हैं।राजधानी दिल्ली में कूड़े के तीन बड़े पहाड़ निर्मित हो चुके हैं।ठोस कचरा और गीला कचरे के प्रसंस्करण को लेकर देश में व्यापक पैमाने पर शोध व विकास यानी आर एंड डी की जरुरत है।यह कार्य जब तक बड़े व प्रभावी पैमाने पर हम नहीं कर पाते, तब तक ‘वेस्ट टु वेल्थ’ महज एक नारा बनकर रहेगा।हम प्लास्टिक कचरे से सड़क बनाने तथा ठोस कचरे से बिजली बनाने और गांवों में पेड़ों के पत्ते तथा अन्य चीजों से कम्पोस्ट बनाने की बातें तो अक्सर सुनते हैं, पर इनके अमलीजामा पहनाने में अभी मीलों लंबा सफर बाकी है।गीले कचरे से हमारी नदियां प्रदूषित हो रही हैं।
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इस मामले में केंद्र सरकार जमुना की सफाई योजना को लेकर अपना संकल्प जरूर प्रदर्शित कर रही है पर इसे हकीकत में परिवर्तित होना बाकी है।हर बार वही कुछ चंद शहर इंदौर, चंडीगढ़, विशाखापट्टनम और सूरत ही बार-बार रैंकिंग में आते हैं।राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है सफाई कर्मियों को प्रोत्साहन और कल्याण।देश में निजी और सरकारी दोनों में कार्यरत सफाई कर्मियों के वेतन और कार्य परिस्थितियों में समरूपता नहीं है।आधुनिक सफाई यंत्रों के अभाव में दुर्घटना की खबरें अभी भी दिल को झकझोर देती हैं।
लेख- मनोहर मनोज के द्वारा