
समान काम समान वेतन कानून (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: भारत सरकार ने अपने पहले से बनाए चार श्रम कानून कानूनों को अधिसूचित करने का जो फैसला किया है, उससे देश में श्रम, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा को लेकर वर्षों से दबे सवाल उभर आए हैं। ये सभी सवाल और प्रासंगिक हो गए हैं, क्योंकि अगले महीने यानी जनवरी 2026 से आठवें वेतन आयोग की अनुशंसा लागू की जाएगी। ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि जब एक देश-एक चुनाव, एक देश-एक विधान की बात की जा रही है तो देश की सभी आबादी के व्यापक हितों को लेकर सरकार अपना व्यापक दृष्टिकोण और कार्य योजना क्यों नहीं प्रदर्शित कर रही है? हमारी अर्थव्यवस्था घोषित और व्यावहारिक दोनों तौर पर सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के दो स्तंभों पर चल रही है।
सवाल उत्पन्न होता है कि हर दस साल में वेतन आयोग गठित कर सरकार देश में केवल 55 लाख सरकारी कर्मचारियों और करीब 75 लाख सेवानिवृत्त कर्मचारियों के पेंशन को लेकर उन्हें विशेष ट्रीटमेंट क्यों प्रदान कर रही है? यदि ये आबादी हकदार है तो क्या देश के और कामगार, मजदूर या कर्मचारी इस प्रावधान के पात्र नहीं हैं? राज्यों की बात करें तो उनकी आर्थिक हैसियत केंद्र जैसी मजबूत नहीं है, लेकिन उन पर भी अपने कर्मचारियों के लिए केंद्रीय वेतनमान देने का दबाव पड़ता है। कई बार केंद्रीय वेतनमान देने में राज्यों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। दूसरा सवाल ये है कि निजी उपक्रमों में श्रम कल्याण के तमाम प्रावधानों को उनकी अपनी मनमानी पर क्यों छोड़ दिया जाता है। निजी क्षेत्र में निचले यानी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन सरकार की तुलना में कम होता है जबकि प्रथम या ऊंची श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन सरकार की तुलना में ज्यादा होता है। सरकार में कार्यरत स्थायी कर्मचारी जहां शत-प्रतिशत संगठित श्रमशक्ति के दायरे में आते हैं। वहीं निजी क्षेत्र में चंद संस्थानों की श्रमशक्ति ही संगठित क्षेत्र के दायरे में है।
केवल दस प्रतिशत निजी यानी बड़े कॉर्पोरेट समूहों को छोड़ दें तो अधिकतर जगह श्रम कानूनों के अनुपालन की स्थिति नहीं है। इस नए आर्थिक युग में जब निजी और सरकारी क्षेत्र के लिए एक समान लेवल प्लेइंग की बात की जाती है तो उस दौर में यह विभेद क्यों? केंद्र सरकार ने एक नीतिगत निर्णय लेकर 2004 के बाद जॉइन करने वाले कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति पेंशन को सरकारी कोष से देना बंद कर दिया और उसे कर्मचारी योगदान अंश पर आधारित कर दिया गया पर अब कई राज्य सरकारें इसे राजनीतिक वोट बैंक समझकर अपनी आर्थिक स्थिति के प्रतिकूल जाकर उनके पेंशन की पुरानी सुविधा, जो आधे वेतन के बराबर है, उसे आजीवन प्रदान करने का वादा कर रही है।
देश में अभी ऐसे कई सेवानिवृत्ति सरकारी कर्मचारी हैं जो एक लाख माहवारी पेंशन पाते हैं जबकि देश के अधिसंख्य लोगों को कोई पेंशन नहीं मिलती। इस मामले में सरकार में भी जो स्थिति पनपी है, वह घोर चिंताजनक है। पिछले कई दशकों से सरकारी महकमे में जो पक्की नौकरी और उससे जुड़े विभिन्न श्रम कानूनों का कवच चला आता आया, उससे सरकार में अनुत्पादक कार्य माहौल, बढ़ता वित्तीय बोझ और श्रम बाजार की बेहद असंतुलित परिस्थितियां उत्पन्न हुईं। इसका कोई स्थायी नीतिगत हल न निकालकर सभी सरकारें चाहे केंद्र में हो या राज्यों में हो, सभी ने इस पर चुप्पी साधे रखी और उन्होंने सरकारी नियुक्ति ही कम कर दी। आज स्थिति ये है कि भारत में प्रति हजार आबादी पर सरकारी नौकरी की संख्या महज 17 है जबकि चीन में 55 और पूंजीवादी देश अमेरिका में 77 है।
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केंद्र सरकार में करीब 10 लाख और राज्य सरकारों में करीब 1 करोड़ स्वीकृत पद खाली पड़े हैं। आज केंद्र और राज्य सरकार के हर महकमे में स्थायी और कॉन्ट्रैक्चुअल कामगारों की एक समानांतर कार्य व्यवस्था चल रही है। सरकार इस पर एक स्पष्ट नीतिगत स्थिति नहीं बना पाई है। सरकार देश में इस बात को सुनिश्चित करे कि एक समान कार्य-एक समान वेतन, एक समान योग्यता- एक समान वेतन, एक सेवा काल- एक समान पेंशन समाज में स्थापित हो जिससे देश में असमानता की खाई को और चौड़ी होने से रोका जा सके।
लेख- मनोहर मनोज के द्वारा






