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नवभारत डेस्क: यद्यपि चीन भरोसेमंद देश नहीं है फिर भी उसकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने भारतीय सेना के साथ सीमा विवाद को हल करने की इच्छा जताई है। इस तरह के प्रस्ताव पर कितना विश्वास किया जा सकता है? प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 11 वर्षों में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 3 प्रमुख शिखर वार्ताएं की हैं जिनमें से 2 भारत में और एक चीन में हुई है।
इतने पर भी गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं की खूनी झड़प हुई जिसमें लाठी और कांटेदार तार बंधे डंडों का इस्तेमाल किया गया। चीन के शांति व सहयोग के प्रस्ताव सिर्फ औपचारिक होते हैं। वास्तविकता यह है कि वह मौके की ताक में रहता है। इसलिए जमीनी स्तर पर उसके प्रस्तावों का कोई महत्व नहीं है।
चीन की चालबाजी का अनुभव भारत को हो चुका है इसलिए वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पूरी मजबूती से सेना की 72 वीं डिवीजन तैनात की गई है। लद्दाख में चीन को घुसपैठ का अब कोई मौका नहीं दिया जाएगा। चीन को भलीभांति मालूम है कि भारत अब सैनिक तैयारी के लिहाज से काफी सशक्त है।
वह समय अलग था जब चीन ने 1962 में भारत पर हमला किया था और हमारा 22,000 वर्ग मील का इलाका हड़प लिया था। भारत की रक्षा नीति और विदेश नीति दोनों ही समय के साथ हैं। इसलिए चीन जानता है कि उसे भारत से टकराव महंगा पड़ेगा। भारत की सबल सैन्य तैयारी को देखकर चीन सिर्फ समय बिताने के इरादे से ऐसे प्रस्ताव रख रहा है।
सीमा विवाद का हल यही है कि चीन भारत के हड़पे हुए भू-भाग को लौटा दे और साथ ही भारत के राज्य अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत बताकर किया जानेवाला अपना बेतुका दावा छोड़ दे। ब्रिटिश शासन के समय भारत व चीन के बीच मैकमोहन लाइन से सीमा निर्धारित की गई थी। चीन उसे मानने से इनकार करता है। तिब्बत को जबरन हड़पने वाले चीन की विस्तारवादी नीतियों से हर कोई अवगत है।
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रूस और मंगोलिया से भी उसका सीमा-विवाद है। उत्तरी कश्मीर में गिलगिट-बाल्टिस्तान का जो हिस्सा पाकिस्तान ने चीन को सौंप दिया है, वह भारत को लौटाया जाना चाहिए। पुराने नक्शों के मिलान और आदान-प्रदान से यदि भारत-चीन सीमा विवाद का कोई स्वीकार्य हल निकालता है तो अच्छी बात है। किसी समस्या को लंबे समय तक लटकाए रखने में कोई तुक नहीं है।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा